Friday, January 1, 2016

प्राण

एक बार शरीर में रहने वाली इन्द्रियों और प्राणों में विवाद हो गया, "शरीर में बडा कौन है ?" सभी इन्द्रियाँ अपने को बड़ा कहती थीं। आँख ने कहा, "यदि वे नहीं देखेंगी तो शरीर का काम कैसे चलेगा ? मनुष्य ठीक से चल भी नहीं सकेगा, इसलिए मैं बडी हूँ ।" हाथों ने कहा, "यदि वे किसी चीज को न पकड़ें तो कोई व्यक्ति भोजन कैसे करेगा ? उसके लिए मक्खी - मच्छर तक उड़ना कठिन हो जायेगा, इसलिए मैं बडा है ।" नाक ने कहा, "यदि वह नहीं सूंघे तो सुगंध- दुर्गन्ध का पता कसे चलेगा ? इस लिए मैं बडी है ।" पैरों ने कहा -- "यदि वे नहीं चलें तो व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान पर कैसे जाएगा ? वहीँ का वहीँ बैठा रह जाएगा। इसलिए पैर ही बडे हैं ।" इस प्रकार सभी इन्द्रियाँ तू-तू मैं-मैं करने लगीं , कोई अपने को छोटा मानने को तैयार नहीं थी। अब कौन बड़ा और कौन छोटा है ? इसका निर्णय नहीं हो पा रहा था। सभी ने कहा, "चलो प्रजापति के पास चलते हैं ।" तब सब प्रजापति के पास गए। बोले--"महाराज ! एक प्रश्न का उत्तर हमें नहीं मिल रहा है। हम सब-के-सब मनुष्य-शरीर में रहते हैं । परन्तु हममें बडा कौन है ? इसका निर्णय हम नहीं कर सकते ।" प्रजापति ने कहा, "जिसके निकल जाने से यह शरीर कुरूप और व्यर्थ हो जाता है, वही तुममें से सबसे बडा है ।" तो सबसे पहले नेत्र बाहर निकले । शरीर वाला अन्धा हो गया। आँख के बिना शरीर कुछ कुरूप भी लगा, परन्तु इसके अतिरिक्त और कुछ हुआ नहीं । तब भी शरीर का काम चलता रहा। क्योंकि नेत्र- हीन व्यक्ति भी तो जीते हैं। सुरदास भी तो इस संसार में जीते हैं । कई बडे-बडे काम भी करते हैं । आँख ने यह अवस्था देखी तो शरीर में वापस आ गई । बोली-- "नहीं, मेरे निकल जाने से यह शरीर व्यर्थ नहीं हुआ । मेरा अभिमान गलत था । मैं सबसे बडी नहीं हूँ ।" फिर श्रवण (कान) ने कहा---"मैं निकलता हूँ।".सबने कहा--"अच्छी बात है ।" परन्तु कान के निकल जाने से कुछ हुआ नहीं । संसार में बहरे लोग भी तो जीते हैं । बहरे होने के कारण उनका जीवन तो समाप्त नहीं हो जाता । कान भी निराश होकर वापस आ गया । तब जिह्वा ने कहा---"मैं निकलती हूँ ।" वह निकली, परन्तु संसार में कई गूँगे भी तो होते हैं । गूँगे होने के कारण जीवन तो समाप्त नहीं हो जाता , जीवन तो चलता ही रहता है , इसलिए जिह्वा भी हारकर वापस आ गई ।
तब बुद्धि ने कहा---"मैं जाती हूँ ।" चली गई वह । शरीर ऐसा हो गया , जैसे एक छोटा-सा बच्चा हो । कद ठीक-ठाक था । मस्तिष्क नन्हे-से बच्चे का था । परन्तु बालक भी तो जीवित रहते हैं । यह शरीर भी जीवित रहा । कुरूप या व्यर्थ नहीं हुआ । तब बुद्धि भी हारकर वापस आ गई । ऐसे प्रत्येक इन्द्रिय बारी-बारी से बाहर निकलीं , शरीर की सभी क्रियाएँ चलती रहीं , कोई अंतर नहीं पड़ा।
फिर प्राण की बारी आई। उसने कहा--"अच्छा अब मैं बाहर जाता हूँ । देखता हूँ कि मेरे निकल जाने से क्या होता है ।".सबने कहा--"निकलो ।" परन्तु जैसे ही प्राण निकलने लगे, वैसे ही सब-के-सब इन्द्रियों को ऐसा प्रतीत हुआ कि उनका गला घुट रहा है । तब सबने चिल्लाकर कहा---"मत निकलो बाहर । तुम्हारे ही कारण तो हम जीवित हैं, कार्य करती हैं । हमने समझ लिया है कि तुम्हीं बडे हो ।" यह है इस प्राण की महिमा । प्राण रहे तो आँख देखती है, कान सुनते हैं, जिह्वा बोलती है, स्वाद लेती है, नासिका (नाक) सूँघती हैं, श्वास लेती है, बुद्धि अपना कार्य करती है, मन अपना कार्य करता है । सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने स्थान पर कार्य करती हैं । यह प्राण न रहे तो सब कुछ न रहने के बराबर हो जाता है । अत: प्राणों के साथ शरीर का गहरा सम्बन्ध है। भीतर- बाहर का स्पंदन और प्रत्येक कर्म प्राणों के चलते ही पूर्ण होता है। यदि कोई प्राणों पर नियंत्रण कर ले तो जन्म- मृत्यु के चक्कर से मुक्त हो सकता है। अत: प्राणायाम परम- पिता परमात्मा से संयुक्त होने की एक विधि है। इसी प्रकार संसार में एक परम आत्मा से ही सारी क्रियाएँ निष्पादित हो रही है । वह परम प्राण है । उसके न रहने से कुछ भी नहीं रहेगा । वही केवल उपासनीय है, सांसारिक पदार्थ या वस्तु नहीं । जो उस परम तत्त्व की उपासना करता है, वह उसे प्राप्त कर लेता है, किन्तु जो सांसारिक पदार्थ या वस्तु की उपासना करता है, वह सांसारिक पदार्थ या वस्तु ही प्राप्त कर पाता है, परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकता ।

No comments: