एक बार किसी सन्त के पास कोई जिज्ञासु आया और उस सन्त को कहा कि महाराज तुम भगवान की बात करते हो तो मुझे दिखाओ कहाँ है तुम्हारा भगवान ? मुझे नजर क्यों नहीं आता ? सन्त ने कहा कि भइया सन्त तो अनुभव की चीज है मैं तुम्हें कैसे दिखाऊँ ? मैं अनुभव कर सकता हूँ मैं उनको देख सकता हूँ मेरे भजन से प्रसन्न होकर वो मुझे अपनी झलक दिखाते हैं पर मैं तुझे कैसे दिखाऊँ ? उस जिज्ञासु को ये सब बातें अच्छी नहीं लगी उसने हठ करते हुए सन्त को कहा कि मुझे ये सब मत बोलो ये ज्ञान की बातें मुझे नहीं सुननी। तुम दिखा सकते हो तो दिखाओ कहाँ है तुम्हारा भगवान ? सन्त ने उसे बहुत समझाया भजन की साधना की बात बताई पर उसको कुछ समझ ही नहीं आता वो बार बार कहता कि तुम मुझे अपना भगवान दिखाओ, कहाँ है तुम्हारा भगवान, मुझे दिखाओ। जब वह किसी तरह नहीं माना तो सन्त ने तुरन्त पास में पड़ी अपनी लाठी उठाई और उसके पैर पर जोर से दे मारी। जितनी जोर से लाठी पड़ी उतने ही जोर से वह दर्द से तड़प उठा। चीखने लग गया, हाय मैं मर गया, हाय मेरे चोट लग गई, बड़ी तकलीफ होती है, बड़ा दर्द होता है। जब उसने ये बातें कहीं तो सन्त ने उसको हँसते हुए पूछा कि दिखा कहाँ है तेरा दर्द ? दिखा मुझे कहाँ है ? वो रोता-रोता तड़पता-तड़पता पीड़ा में बोला अरे महाराज ! दर्द को तो महसूस किया जा सकता है, कोई दिखाया थोड़ी जा सकता है मैं दिखाऊँ कैसे कि कहाँ है मेरा दर्द। सन्त ने हंसकर कहा पागल इसी तरह से परमात्मा को दिखाया नहीं जा सकता, पर उसको देखा जा सकता है उसका दर्शन किया जा सकता है। जिस पर वो कृपा कर दें उसको उनका दर्शन हो जाता है
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