दो मित्र थे, एक अंधा और एक लंगड़ा। साथ रहते और साथ ही भीख मांगते। साथ रहना जरूरी भी था, क्योंकि अंधा देख नहीं सकता था, लंगड़ा चल नहीं सकता था। तो अंधा लंगड़े को अपने कंधे पर बिठाकर चलता था। भीख अलग— अलग मांगी भी नहीं जा सकती थी . फिर जैसे सभी साझेदारों में झगड़े हो जाते हैं, कभी—कभी उनमें भी झगड़े हो जाते थे। कभी लंगड़ा ज्यादा पैसे पर कब्जा कर लेता, कभी अंधा ज्यादा पैसे पर कब्जा कर लेता। एक दिन तो बात ऐसी बढ़ गयी कि दोनों ने एक—दूसरे को डटकर पीटा। भगवान को बड़ी दया आयी भगवान ने सोचा कि अंधे को अगर आंखें और लंगड़े को अगर पांव दे दिए जाएं तो कोई एक—दूसरे का आश्रित न रहेगा, एक—दूसरे से मुक्त हो जाएंगे और इनके जीवन में शांति होगी। भगवान प्रगट हुआ और उसने उन दोनों से कहा कि तुम वरदान माग लो, तुम्हें जो चाहिए हो मांग लो। क्योंकि स्वभावत:, भगवान ने सोचा कि अंधा आंख मांगेगा, लंगड़ा पैर मांगेगा। मगर नहीं, आदमी की बात पूछो ही मत!उन्होंने लंगड़े को दर्शन दिया, पूछा कि तू मांग ले, तुझे क्या मांगना है? लंगड़े ने कहा— भगवान, उस अंधे को भी लंगडा बना दो। फिर अंधे के सामने प्रगट हुए। अंधे ने कहा—प्रभु, उस लंगडे को अंधा बना दो।दोनों एक—दूसरे को दंड देने में उत्सुक थे। अंधा लंगड़ा भी हो गया, और लंगड़ा अंधा भी हो गया, हालत और खराब हो गयी। शायद इसीलिए अब भगवान इतनी जल्दी दया नहीं करता और ऐसे आ— आकर प्रगट नहीं हो जाता, और कहता नहीं कि वरदान मांग लो।
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