Wednesday, September 30, 2015

गृहस्थी का मूल मंत्र

संत कबीर रोज सत्संग किया करते थे। दूर-दूर से लोग उनकी बात सुनने आते थे। एक दिन सत्संग खत्म होने पर भी एक आदमी बैठा ही रहा। कबीर ने इसका कारण पूछा तो वह बोला, ‘मुझे आपसे कुछ पूछना है। मैं गृहस्थ हूं, घर में सभी लोगों से मेरा झगड़ा होता रहता है। मैं जानना चाहता हूं कि मेरे यहां गृह क्लेश क्यों होता है और वह कैसे दूर हो सकता है?’कबीर थोड़ी देर चुप रहे, फिर उन्होंने अपनी पत्नी से कहा, ‘लालटेन जलाकर लाओ’। कबीर की पत्नी लालटेन जलाकर ले आई। वह आदमी भौंचक देखता रहा। सोचने लगा इतनी दोपहर में कबीर ने लालटेन क्यों मंगाई। थोड़ी देर बाद कबीर बोले, ‘कुछ मीठा दे जाना।’ इस बार उनकी पत्नी मीठे के बजाय नमकीन देकर चली गई।
उस आदमी ने सोचा कि यह तो शायद पागलों का घर है। मीठा के बदले नमकीन, दिन में लालटेन। वह बोला, ‘कबीर जी मैं चलता हूं।’
कबीर ने पूछा, ‘आपको अपनी समस्या का समाधान मिला या अभी कुछ संशय बाकी है?’
वह व्यक्ति बोला, ‘मेरी समझ में कुछ नहीं आया।’ कबीर ने कहा, ‘जैसे मैंने लालटेन मंगवाई तो मेरी घरवाली कह सकती थी कि तुम क्या सठिया गए हो। इतनी दोपहर में लालटेन की क्या जरूरत। लेकिन नहीं, उसने सोचा कि जरूर किसी काम के लिए लालटेन मंगवाई होगी। मीठा मंगवाया तो नमकीन देकर चली गई। हो सकता है घर में कोई मीठी वस्तु न हो। यह सोचकर मैं चुप रहा। इसमें तकरार क्या?
आपसी विश्वास बढ़ाने और तकरार में न फंसने से विषम परिस्थिति अपने आप दूर हो गई।’
उस आदमी को हैरानी हुई। वह समझ गया कि कबीर ने यह सब उसे बताने के लिए किया था। कबीर ने फिर कहा,’ गृहस्थी में आपसी विश्वास से ही तालमेल बनता है। आदमी से गलती हो तो औरत संभाल ले और औरत से कोई त्रुटि हो जाए तो पति उसे नजरअंदाज कर दे। यही गृहस्थी का मूल मंत्र है।’

Compiled and edited by
Mr Gothi ji
(Member ~ "Yaatra" watsapp group)

करुणा

एक दिन की घटना है । एक छोटी सी लड़की फटे पुराने कपड़ो में एक सड़क के कोने पर खड़ी भीख मांग रही थी । न तो उसके पास खाने को था, न ही पहनने के लिए ठीक ठाक कपड़े थे और न ही उसे शिक्षा प्राप्त हो पा रही थी ।वह बहुत ही गन्दी बनी हुई थी, कई दिनों से नहाई नहीं थी और उसके बाल भी बिखरे हुए थे । तभी एक अच्छे घर का संभ्रांत युवा अपनी कार में उस चौराहे से निकला और उसने उस लड़की को देखते हुए भी  अनदेखा कर दिया । अंततः वह अपने आलीशान घर में  पहुंचा जहाँ सुख  सुविधा के सभी साधन उपलब्ध थे । तमाम नौकर चाकर थे, भरा पूरा सुखी परिवार था । जब वह रात्रि का भोजन करने के लिए अनेक व्यंजनों से भरी हुई मेज पर बैठा तो अनायास ही उस अनाथ भिखारी बच्ची की तस्वीर उसकी आँखों के सामने आ गयी । उस
बिखरे बालों वाली फटे पुराने कपड़ों में छोटी सी भूखी बच्ची की याद आते ही वह व्यक्ति ईशवर पर बहुत नाराज़ हुआ । उसने ईश्वर को ऐसी व्यवस्था के लिए बहुत धिक्कारा कि उसके पास तो सारे सुख साधन मौजूद थे और एक निर्दोष लड़की के पास न खाने को था और न ही वह शिक्षा प्राप्त कर पा रही थी । अंततः उसने ईश्वर को कोसा,  " हे ईश्वर आप ऐसा कैसे होने दे रहे हैं ? आप इस लड़की की मदद करने के लिए कुछ करते क्यों नहीं  ?" इस प्रकार बोल कर वह खाने की मेज़ पर ही आंखें बंद करके बैठा था ।  तभी  उसने अपनी अन्तरात्मा से आती हुई आवाज़ सुनी जो कि ईश्वरीय ही थी । ईश्वर  ने कहा  " मैं बहुत कुछ करता हूँ और ऐसी परिस्तिथियों को बदलने के लिए मैंने बहुत कुछ किया है । मैंने तुम्हें बनाया है ।" जैसे ही उस व्यक्ति को यह एहसास हुआ कि ईश्वर उस गरीब बालिका का उद्वार उसी के द्वारा  करना चाहता है, वह बिना भोजन किये मेज़ से उठा और वापस उसी स्थान पर पहुंचा, जहाँ वह गरीब लड़की खड़ी भीख मांग रही थी । वहां पहुँच कर उसने उस लड़की को कपडे दिए और भविष्य में उसे पढ़ाने लिखाने और  एक सम्मानित नागरिक बनाने का पूरा खर्चा उठाया ।

Compiled and Edited by
Mrs Shruti Chabra ji
(Senior & Founder Member ~"Yaatra" watsapp group)

मांस का मूल्य

मगध के सम्राट् श्रेणिक ने एक बार अपनी राज्य-सभा में पूछा कि - "देश की खाद्य समस्या को सुलझाने के लिए सबसे सस्ती वस्तु क्या है?"मंत्रि-परिषद् तथा अन्य सदस्य सोच में पड़ गये। चावल, गेहूं, आदि पदार्थ तो बहुत श्रम बाद मिलते हैं और वह भी तब, जबकि प्रकृति का प्रकोप न हो। ऐसी हालत में अन्न तो सस्ता हो नहीं सकता। शिकार का शौक पालने वाले एक अधिकारी ने सोचा कि मांस ही ऐसी चीज है, जिसे बिना कुछ खर्च किये प्राप्त किया जा सकता है।उसने मुस्कराते हुए कहा, "राजन्! सबसे सस्ता खाद्य पदार्थ तो मांस है। इसे पाने में पैसा नहीं लगता और पौष्टिक वस्तु खाने को मिल जाती है।"सबने इसका समर्थन किया, लेकिन मगध का प्रधान मंत्री अभय कुमार चुप रहा।श्रेणिक ने उससे कहा, "तुम चुप क्यों हो? बोलो, तुम्हारा इस बारे में क्या मत है?"प्रधान मंत्री ने कहा, "यह कथन कि मांस सबसे सस्ता है, एकदम गलत है। मैं अपने विचार आपके समक्ष कल रखूंगा।"
रात होने पर प्रधानमंत्री सीधे उस सामन्त ( अधिकारी )के महल पर पहुंचे, जिसने सबसे पहले अपना प्रस्ताव रखा था। अभय ने द्वार खटखटाया।सामन्त ने द्वार खोला। इतनी रात गये प्रधान मंत्री को देखकर वह घबरा गया। उनका स्वागत करते हुए उसने आने का कारण पूछा।प्रधान मंत्री ने कहा,- "संध्या को महाराज श्रेणिक बीमार हो गए हैं। उनकी हालत खराब है। राजवैद्य ने उपाय बताया है कि किसी बड़े आदमी के हृदय का दो तोला मांस मिल जाय तो राजा के प्राण बच सकते हैं। आप महाराज के विश्ववास-पात्र सामन्त हैं। इसलिए मैं आपके पास आपके हृदय का दो तोला मांस लेने आया हूं। इसके लिए आप जो भी मूल्य लेना चाहें, ले सकते हैं। कहें तो लाख स्वर्ण मुद्राएं दे सकता हूं।"यह सुनते ही सामान्त के चेहरे का रंग फीका पड़ गया। वह सोचने लगा कि जब जीवन ही नहीं रहेगा, तब लाख स्वर्ण मुद्राएं भी किस काम आएगी!उसने प्रधान मंत्री के पैर पकड़ कर माफी चाही और अपनी तिजौरी से एक लाख स्वर्ण मुद्राएं देकर कहा कि इस धन से वह किसी और सामन्त के हृदय का मांस खरीद लें।मुद्राएं लेकर प्रधानमंत्री बारी-बारी से सभी सामन्तों के द्वार पर पहुंचे और सबसे राजा के लिए हृदय का दो तोला मांस मांगा, लेकिन कोई भी राजी न हुआ। सबने अपने बचाव के लिए प्रधानमंत्री को एक लाख, दो लाख और किसी ने पांच लाख स्वर्ण मुद्राएं दे दी। इस प्रकार एक करोड़ से ऊपर स्वर्ण मुद्राओं का संग्रह कर प्रधान मंत्री सवेरा होने से पहले अपने महल पहुंच गए और समय पर राजसभा में प्रधान मंत्री ने राजा के समक्ष एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएं रख दीं।श्रेणिक ने पूछा, "ये मुद्राएं किसलिए हैं?"प्रधानमंत्री ने सारा हाल कह सुनाया और बो्ले,- " दो तोला मांस खरीदने के लिए इतनी धनराशी इक्कट्ठी हो गई किन्तु फिर भी दो तोला मांस नहीं मिला। अपनी जान बचाने के लिए सामन्तों ने ये मुद्राएं दी हैं। अब आप सोच सकते हैं कि मांस कितना सस्ता है?"
जीवन का मूल्य अनंन्त है। हम यह न भूलें कि जिस तरह हमें अपनी जान प्यारी होती है, उसी तरह सभी जीवों को अपनी जान प्यारी होती है 

Compiled and Edited by
Mrs Bindu ji
(Senior Member ~"Yaatra" watsapp group)

Tuesday, September 29, 2015

Guru Vs Teacher

Difference between a Guru and a Teacher!

1. A teacher takes responsibility for your growth.
A Guru makes you responsible for your growth.

2.A teacher gives you things you do not have and require.
A Guru takes away things you have and you do not require and that are harmful

3. A teacher answers your questions.
A Guru questions your answers.

4. A teacher requires obedience and discipline from the pupil.
A Guru requires trust and humility from the pupil.

5. A teacher clothes you and prepares you for the outer journey.
A Guru strips you naked and prepares you for the inner journey.

6. A teacher is a guide on the path.
A Guru is a pointer to the way.

7. A teacher sends you on the road to success.
A Guru sends you on the road to freedom.

8. A teacher explains the world and its nature to you.
A Guru explains yourself and your nature to you.

9. A teacher gives you knowledge and boosts your ego.
A Guru takes away your knowledge and punctures your ego.

10. A teacher instructs you.
A Guru constructs you.

11. A teacher sharpens your mind.
A Guru opens your mind.

12. A teacher reaches your mind.
A Guru touches your spirit.

13. A teacher instructs you on how to solve problems.
A Guru shows you how to resolve issues.

14. A teacher is a systematic thinker.
A Guru is a lateral thinker.

15. One can always find a teacher.
But a Guru has to find and accept you.

16. A teacher leads you by the hand.
A Guru leads you by example.

17.When a teacher finishes with you, you celebrate.
When a Guru finishes with you, life celebrates.

Let us honor both, the teachers and the Guru in our life.

Compiled and Edited by
Sh. Girish kumar ji
(Senior member ~ "Yaatra" watsapp group)

The Brooklyn Bridge

In 1883, a creative engineer named John Roebling was inspired by an idea to build a spectacular bridge connecting New York with the Long Island. However bridge building experts throughout the world thought that this was an impossible feat and told Roebling to forget the idea. It just could not be done. It was not practical. It had never been done before.

Roebling could not ignore the vision he had in his mind of this bridge. He thought about it all the time and he knew deep in his heart that it could be done. He just had to share the dream with someone else. After much discussion and persuasion he managed to convince his son Washington, an up and coming engineer, that the bridge in fact could be built.

Working together for the first time, the father and son developed concepts of how it could be accomplished and how the obstacles could be overcome. With great excitement and inspiration, and the headiness of a wild challenge before them, they hired their crew and began to build their dream bridge.

The project started well, but when it was only a few months underway a tragic accident on the site took the life of John Roebling. Washington was also injured and left with a certain amount of brain damage, which resulted in him not being able to talk or walk.

“We told them so.” “Crazy men and their crazy dreams.” “It’s foolish to chase wild visions.”

Everyone had a negative comment to make and felt that the project should be scrapped since the Roeblings were the only ones who knew how the bridge could be built.

In spite of his handicap Washington was never discouraged and still had a burning desire to complete the bridge and his mind was still as sharp as ever. He tried to inspire and pass on his enthusiasm to some of his friends, but they were too daunted by the task.

As he lay on his bed in his hospital room, with the sunlight streaming through the windows, a gentle breeze blew the flimsy white curtains apart and he was able to see the sky and the tops of the trees outside for just a moment.

It seemed that there was a message for him not to give up. Suddenly an idea hit him. All he could do was move one finger and he decided to make the best use of it. By moving this, he slowly developed a code of communication with his wife.

He touched his wife’s arm with that finger, indicating to her that he wanted her to call the engineers again. Then he used the same method of tapping her arm to tell the engineers what to do. It seemed foolish but the project was under way again.

For 13 years Washington tapped out his instructions with his finger on his wife’s arm, until the bridge was finally completed. Today the spectacular Brooklyn Bridge stands in all its glory as a tribute to the triumph of one man’s indomitable spirit and his determination not to be defeated by circumstances. It is also a tribute to the engineers and their team work, and to their faith in a man who was considered mad by half the world. It stands too as a tangible monument to the love and devotion of his wife who for 13 long years patiently decoded the messages of her husband and told the engineers what to do.

Perhaps this is one of the best examples of a never-say-die attitude that overcomes a terrible physical handicap and achieves an impossible goal.

Often when we face obstacles in our day-to-day life, our hurdles seem very small in comparison to what many others have to face. The Brooklyn Bridge shows us that dreams that seem impossible can be realised with determination and persistence, no matter what the odds are.

Compiled and edited by
Mrs Shruti Chabra ji
(Senior member~"Yaatra" watsapp group)

Friday, September 25, 2015

देवदूत

मृत्यु के देवता ने अपने एक दूत को भेजा पृथ्वी पर। एक स्त्री मर गयी थी, उसकी आत्मा को लाना था। देवदूत आया, लेकिन चिंता में पड़ गया। क्योंकि तीन  लड़कियां  बहुत ही छोटी थी । परिवार में और कोई भी नहीं है। इन तीन छोटी बच्चियों का क्या होगा?
उस देवदूत को यह खयाल आ गया, तो वह खाली हाथ वापस लौट गया। उसने जा कर अपने प्रधान को कहा कि मैं न ला सका, मुझे क्षमा करें, लेकिन आपको स्थिति का पता ही नहीं है।  हृदय मेरा ला न सका। क्या यह नहीं हो सकता कि इस स्त्री को कुछ दिन और जीवन के दे दिए जाएं? कम से कम लड़कियां थोड़ी बड़ी हो जाएं। और कोई देखने वाला नहीं है।
मृत्यु के देवता ने कहा, तो तू फिर समझदार हो गया; उससे ज्यादा, जिसकी मर्जी से मौत होती है, जिसकी मर्जी से जीवन होता है! तो तूने पहला पाप कर दिया, और इसकी तुझे सजा मिलेगी। और सजा यह है कि तुझे पृथ्वी पर चले जाना पड़ेगा। और जब तक तू तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर, तब तक वापस न आ सकेगा।इसे थोड़ा समझना। तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर–क्योंकि दूसरे की मूर्खता पर तो अहंकार हंसता है। जब तुम अपनी मूर्खता पर हंसते हो तब अहंकार टूटता है।देवदूत को लगा नहीं। वह राजी हो गया दंड भोगने को, लेकिन फिर भी उसे लगा कि सही तो मैं ही हूं। और हंसने का मौका कैसे आएगा?
उसे जमीन पर फेंक दिया गया। एक चमार, सर्दियों के दिन करीब आ रहे थे और बच्चों के लिए कोट और कंबल खरीदने शहर गया था, कुछ रुपए इकट्ठे कर के। जब वह शहर जा रहा था तो उसने राह के किनारे एक नंगे आदमी को पड़े हुए, ठिठुरते हुए देखा। यह नंगा आदमी वही देवदूत है जो पृथ्वी पर फेंक दिया गया था। उस चमार को दया आ गयी। और बजाय अपने बच्चों के लिए कपड़े खरीदने के, उसने इस आदमी के लिए कंबल और कपड़े खरीद लिए। इस आदमी को कुछ खाने-पीने को भी न था, घर भी न था, छप्पर भी न था जहां रुक सके। तो चमार ने कहा कि अब तुम मेरे साथ ही आ जाओ। लेकिन अगर मेरी पत्नी नाराज हो–जो कि वह निश्चित होगी, क्योंकि बच्चों के लिए कपड़े खरीदने लाया था, वह पैसे तो खर्च हो गए–वह अगर नाराज हो, चिल्लाए, तो तुम परेशान मत होना। थोड़े दिन में सब ठीक हो जाएगा।
उस देवदूत को ले कर चमार घर लौटा। न तो चमार को पता है कि देवदूत घर में आ रहा है, न पत्नी को पता है। जैसे ही देवदूत को ले कर चमार घर में पहुंचा, पत्नी एकदम पागल हो गयी। बहुत नाराज हुई, बहुत चीखी-चिल्लायी।
और देवदूत पहली दफा हंसा। चमार ने उससे कहा, हंसते हो, बात क्या है? उसने कहा, मैं जब तीन बार हंस लूंगा तब बता दूंगा। देवदूत हंसा पहली बार, क्योंकि उसने देखा कि इस पत्नी को पता ही नहीं है कि चमार देवदूत को घर में ले आया है, जिसके आते ही घर में हजारों खुशियां आ जाएंगी। लेकिन आदमी देख ही कितनी दूर तक सकता है! पत्नी तो इतना ही देख पा रही है कि एक कंबल और बच्चों के पकड़े नहीं बचे। जो खो गया है वह देख पा रही है, जो मिला है उसका उसे अंदाज ही नहीं है–घर में देवदूत आ गया है। जिसके आते ही हजारों खुशियों के द्वार खुल जाएंगे। तो देवदूत हंसा। उसे लगा, अपनी मूर्खता–क्योंकि यह पत्नी भी नहीं देख पा रही है कि क्या घट रहा है!जल्दी ही, क्योंकि वह देवदूत था, सात दिन में ही उसने चमार का सब काम सीख लिया। और उसके जूते इतने प्रसिद्ध हो गए कि चमार महीनों के भीतर धनी होने लगा। आधा साल होते-होते तो उसकी ख्याति सारे लोक में पहुंच गयी कि उस जैसा जूते बनाने वाला कोई भी नहीं, क्योंकि वह जूते देवदूत बनाता था। सम्राटों के जूते वहां बनने लगे। धन अपरंपार बरसने लगा।एक दिन सम्राट का आदमी आया। और उसने कहा कि यह चमड़ा बहुत कीमती है, आसानी से मिलता नहीं, कोई भूल-चूक नहीं करना। जूते ठीक इस तरह के बनने हैं। और ध्यान रखना जूते बनाने हैं, चप्पल नहीं। क्योंकि वहां ऐसी मान्यता थी की जब कोई आदमी मर जाता है तब उसको चप्पल पहना कर मरघट तक ले जाते हैं। चमार ने भी देवदूत को कहा कि स्लीपर मत बना देना। जूते बनाने हैं, स्पष्ट आज्ञा है, और चमड़ा इतना ही है। अगर गड़बड़ हो गयी तो हम मुसीबत में फंसेंगे।लेकिन फिर भी देवदूत ने चप्पल ही बनाए। जब चमार ने देखे कि चप्पल बनी  हैं तो वह क्रोध से आगबबूला हो गया। वह लकड़ी उठा कर उसको मारने को तैयार हो गया कि तू हमारी फांसी लगवा देगा! और तुझे बार-बार कहा था कि चप्पल बनाने ही नहीं हैं, फिर यह किसलिए?देवदूत फिर खिलखिला कर हंसा। तभी आदमी सम्राट के घर से भागा हुआ आया। उसने कहा, जूते मत बनाना, चप्पल बनाना। क्योंकि सम्राट की मृत्यु हो गयी है। भविष्य अज्ञात है। सिवाय उसके और किसी को ज्ञात नहीं। और आदमी तो अतीत के आधार पर निर्णय लेता है। सम्राट जिंदा था तो जूते चाहिए थे, मर गया तो चप्पल चाहिए। तब वह चमार उसके पैर पकड़ कर माफी मांगने लगा कि मुझे माफ कर दे, मैंने तुझे मारा। पर उसने कहा, कोई हर्ज नहीं। मैं अपना दंड भोग रहा हूं।लेकिन वह हंसा आज दुबारा। चमार ने फिर पूछा कि हंसी का कारण? उसने कहा कि जब मैं तीन बार हंस लूं…।
दुबारा हंसा इसलिए कि भविष्य हमें ज्ञात नहीं है। इसलिए हम आकांक्षाएं करते हैं जो कि व्यर्थ हैं। हम अभीप्साएं करते हैं जो कि कभी पूरी न होंगी। हम मांगते हैं जो कभी नहीं घटेगा। क्योंकि कुछ और ही घटना तय है। हमसे बिना पूछे हमारी नियति घूम रही है। और हम व्यर्थ ही बीच में शोरगुल मचाते हैं। चाहिए चप्पल और हम जूते बनवाते हैं। मरने का वक्त करीब आ रहा है और जिंदगी का हम आयोजन करते हैं।
तो देवदूत को लगा कि वे बच्चियां! मुझे क्या पता, भविष्य उनका क्या होने वाला है? मैं नाहक बीच में आया।और तीसरी घटना घटी कि एक दिन तीन लड़कियां आयीं जवान। उन तीनों की शादी हो रही थी। और उन तीनों ने जूतों के आर्डर दिए कि उनके लिए जूते बनाए जाएं। एक बूढ़ी महिला उनके साथ आयी थी जो बड़ी धनी थी। देवदूत पहचान गया, ये वे ही तीन लड़कियां हैं, जिनको वह मृत मां के पास छोड़ गया था और जिनकी वजह से वह दंड भोग रहा है। वे सब स्वस्थ हैं, सुंदर हैं। उसने पूछा कि क्या हुआ? यह बूढ़ी औरत कौन है? उस बूढ़ी औरत ने कहा कि ये मेरी पड़ोसिन की लड़कियां हैं। वो बहुत ही गरीब थी लेकिन मुझे दया आ गयी, मेरे कोई बच्चे नहीं हैं, और मैंने इन तीनों बच्चियों को पाल लिया।अगर मां जिंदा रहती तो ये तीनों बच्चियां गरीबी, भूख और दीनता और दरिद्रता में बड़ी होतीं। मां मर गयी, इसलिए ये बच्चियां तीनों बहुत बड़े धन-वैभव में, संपदा में पलीं। और अब उस बूढ़ी की सारी संपदा की ये ही तीन मालिक हैं। और इनका सम्राट के परिवार में विवाह हो रहा है।
देवदूत तीसरी बार हंसा। और चमार को उसने कहा कि ये तीन कारण हैं। भूल मेरी थी। नियति बड़ी है। और हम उतना ही देख पाते हैं, जितना देख पाते हैं। जो नहीं देख पाते, बहुत विस्तार है उसका। और हम जो देख पाते हैं उससे हम कोई अंदाज नहीं लगा सकते, जो होने वाला है, जो होगा। मैं अपनी मूर्खता पर तीन बार हंस लिया हूं। अब मेरा दंड पूरा हो गया और अब मैं जाता हूं।

Edited and compiled by
Mr. Gaurav Narang ji
(Member~"Yaatra" whatsapp group)

गुब्बारेवाला

एक आदमी गुब्बारे बेच कर जीवन-यापन करता था.  वह गाँव के आस-पास लगने वाली हाटों में जाता और गुब्बारे बेचता . बच्चों को लुभाने के लिए वह तरह-तरह के गुब्बारे रखता …लाल, पीले ,हरे, नीले…. और जब कभी उसे लगता की बिक्री कम हो रही है वह झट से एक गुब्बारा हवा में छोड़ देता, जिसे उड़ता देखकर बच्चे खुश हो जाते और गुब्बारे खरीदने के लिए पहुँच जाते.इसी तरह तरह एक दिन वह हाट में गुब्बारे बेच रहा था और बिक्री बढाने के लिए बीच-बीच में गुब्बारे उड़ा रहा था. पास ही खड़ा एक छोटा बच्चा ये सब बड़ी जिज्ञासा के साथ देख रहा था . इस बार जैसे ही गुब्बारे वाले ने एक सफ़ेद गुब्बारा उड़ाया वह तुरंत उसके पास पहुंचा और मासूमियत से बोला, ” अगर आप ये काल वाला गुब्बारा छोड़ेंगे…तो क्या वो भी ऊपर जाएगा ?”गुब्बारा वाले ने थोड़े अचरज के साथ उसे देखा और बोला, ” हाँ  बिलकुल जाएगा.  बेटे ! गुब्बारे का ऊपर जाना  इस बात पर नहीं निर्भर करता है कि वो किस रंग का है बल्कि इसपर निर्भर करता है कि उसके अन्दर क्या है .” !!!!!!!
ठीक इसी तरह हम इंसानों के लिए भी ये बात लागु होती है. कोई अपने जीवन में क्या पायेगा करेगा, ये उसके बाहरी रंग-रूप पर नहीं निर्भर करता है , ये इस बात पर निर्भर करता है कि उसके अन्दर क्या है. अंतत: हमारा दृष्टिकोण ही निर्णायक होता है हमारी सांसारिक और आध्यात्मिक प्राप्तियों में  ।

Compiled and Edited by
Mrs Shruti Chabra ji
(Senior member ~ "Yaatra" watsapp group)

Thursday, September 24, 2015

उत्साह

एक नौजवान चीता पहली बार शिकार करने निकला। अभी वो कुछ ही आगे बढ़ा था कि एक लकड़बग्घा उसे रोकते हुए बोला, ” अरे  , कहाँ जा रहे हो तुम ?”
“मैं तो आज पहली बार खुद से शिकार करने निकला हूँ !”,  चीता रोमांचित होते हुए बोला।“हा-हा-हा-“, लकड़बग्घा हंसा ,” अभी तो तुम्हारे खेलने-कूदने के दिन हैं , तुम इतने छोटे हो , तुम्हे शिकार करने का कोई अनुभव भी नहीं है , तुम क्या शिकार करोगे !!”लकड़बग्घे की बात सुनकर चीता उदास हो गया , दिन भर शिकार के लिए वो बेमन इधर-उधर घूमता रहा , कुछ एक प्रयास भी किये पर सफलता नहीं मिली और उसे भूखे पेट ही घर लौटना पड़ा।
अगली सुबह वो एक बार फिर शिकार के लिए निकला। कुछ दूर जाने पर उसे एक बूढ़े बन्दर ने देखा और पुछा , ” कहाँ जा रहे हो बेटा ?”“बंदर मामा, मैं शिकार पर जा रहा हूँ। ” चीता बोला।“बहुत अच्छे ”  बन्दर बोला , ”तुम्हारी ताकत और गति के कारण तुम एक बेहद कुशल शिकारी बन सकते हो , जाओ तुम्हे जल्द ही सफलता मिलेगी।” यह सुन चीता उत्साह से भर गया और कुछ ही समय में उसनेके छोटे हिरन का शिकार कर लिया।
मित्रों , हमारी ज़िन्दगी में “शब्द” बहुत मायने रखते हैं। दोनों ही दिन चीता तो वही था,उसमे वही फूर्ति और वही ताकत थी.पर जिस दिन उसे हतोस्तहित कियागया वो असफल हो गया और जिस दिन उत्साहित किया गया वो सफल हो गया।
इस छोटी सी कहानी से हम तीनज़रूरी बातें सीख सकते हैं :
पहली , हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम अपने “शब्दों” से किसी को उत्साहित करें , हतोस्तहित नहीं। ध्यान रखे कि हम उसे उसकी कमियों से अवगत भी करायें ।
दूसरी, हम ऐसे लोगों से बचें जो हमेशा नकारात्मक सोचते और बोलते हों, और उनका साथ करें जिनकी सोच सकारात्मक हो।
तीसरी और सबसे अहम बात , हम खुद से क्या बात करते हैं , और कौन से शब्दों का प्रयोग करते हैं इसका सबसे ज्यादा ध्यान रखें , क्योंकि ये “शब्द” बहुत ताकतवर होते हैं क्योंकि ये “शब्द” ही हमारे विचार बन जाते हैं ,
और ये विचार  ही हमारी ज़िन्दगी की हकीकत बन कर सामनेआते हैं , इसलिये , शब्द की शक्ति को पहचानिये,

Edited and Compiled by
Sh. Deep ji
(Founder & Senior member~"Yaatra" watsapp group)

    

परम गति

नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी। एक कौए ने लाश देखी, तो प्रसन्न हो उठा, तुरंत उस पर आ बैठा। यथेष्ट मांस खाया। नदी का जल पिया। उस लाश पर इधर-उधर फुदकते हुए कौए ने परम तृप्ति की डकार ली। वह सोचने लगा, अहा! यह तो अत्यंत सुंदर यान है, यहां भोजन और जल की भी कमी नहीं। फिर इसे छोड़कर अन्यत्र क्यों भटकता फिरूं?
कौआ नदी के साथ बहने वाली उस लाश के ऊपर कई दिनों तक रमता रहा। भूख लगने पर वह लाश को नोचकर खा लेता, प्यास लगने पर नदी का पानी पी लेता। अगाध जलराशि, उसका तेज प्रवाह, किनारे पर दूर-दूर तक फैले प्रकृति के मनोहरी दृश्य-इन्हें देख-देखकर वह विभोर होता रहा।
नदी एक दिन आखिर महासागर में मिली। वह मुदित थी कि उसे अपना गंतव्य प्राप्त हुआ। सागर से मिलना ही उसका चरम लक्ष्य था, किंतु उस दिन लक्ष्यहीन कौए की तो बड़ी दुर्गति हो गई। चार दिन की मौज-मस्ती ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहां उसके लिए न भोजन था, न पेयजल और न ही कोई आश्रय। सब ओर सीमाहीन अनंत खारी जल-राशि तरंगायित हो रही थी।
कौआ थका-हारा और भूखा-प्यासा कुछ दिन तक तो चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब फैलाता रहा, किंतु महासागर का ओर-छोर उसे कहीं नजर नहीं आया। आखिरकार थककर, दुख से कातर होकर वह सागर की उन्हीं गगनचुंबी लहरों में गिर गया। एक विशाल मगरमच्छ उसे निगल गया।
शारीरिक सुख में लिप्त मनुष्यों की भी गति उसी कौए की तरह होती है, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानता है।

Compiled and edited by
Mr Sanjeev ji
(Member~"Yaatra" watsapp group presentation )

मक्की का दाना

एक समय की बात हैं, के श्री गुरू नानक देव जी महाराज और उनके दो शिष्य बाला और मरदाना किसी गाँव में जा रहे थे। चलते-चलते रास्ते में एक मकई का खेत आया। बाला स्वाभाविक बहुत कम बोलता था, मगर जो मरदाना था, वो तर्क करता था। मकई का खेत देख कर मरदाने ने गुरू नानकजी महाराज से सवाल किया के बाबाजी इस मकई के खेत में जितने दाने हैं, क्या वो सब पहले से निर्धारित कर दिऐ गए हैं कि कौन इस का हकदार हैं और यह किस के मुँह में जाऐंगे। तो इस पर गुरू नानकजी महाराज ने कहा बिल्कुल इस संसार में कहीं भी कोई भी खाने योग्य वनस्पति पर मोहर पहले से ही लग गई हैं और जिसके नाम की मोहर होगी वही जीव उसका ग्रास करेगा। गुरूजी की इस बात ने मरदाने के मन् के अन्दर कई सवाल खड़े कर दिए, मरदाने ने मकई के खेत से एक मक्का तोड़ लिया और उसका एक दाना निकाल कर हथेली पर रख लिया और गुरू नानकजी महाराज से यह पूछने लगा बाबाजी कृपा करके आप मुझे बताए के इस दाने पर किसका नाम लिखा हैं, इस पर गुरू नानकजी महाराज ने जवाब दिया के इस दाने पर एक मुर्गी का नाम लिखा हैं। मरदाने ने गुरूजी के सामने बड़ी चालाकी दिखाते हुए, मकई का वो दाना अपने मुँह मे फेंक लिया और गुरूजी से कहने लगा के कुदरत का यह नियम तो बढ़ी आसानी से टूट गया। मरदाने ने जैसे ही वो दाना निगला वो दाना मरदाने की श्वास नली में फस गया। अब मरदाने की हालत तीर लगे कबूतर जैसी हो गई। मरदाने ने गुरू नानक देव जी को कहा के बाबाजी कुछ कीजिए नहीं तो मैं मर जाउंगा, गुरू नानक देव जी महाराज ने कहा, बेटा ! मैं क्या करू कोई वैद्य या हकीम ही इसको निकाल सकता हैं। पास के गाँव मे चलते हैं, वहाँ किसी हकीम को दिखाते है। मरदाने को लेकर वो पास के एक गाँव में चले गए।

वहाँ एक हकीम मिले उस हकीम ने मरदाने की नाक मे नसवार डाल दी, नसवार बहुत तेज थी नसवार सुंघते ही मरदाने को छींके आनी शुरू हो गई। मरदाने के छीँकने से मकई का वो दाना गले से निकल कर बाहर गिर गया। जैसे ही दाना बाहर गिरा पास ही खड़ी मुर्गी ने झट से वो दाना खा लिया। मरदाने ने गुरू नानक देव जी से क्षमा माँगी और कहा बाबाजी मुझे माफ़ कर दीजिए, मैंने आपकी बात पर शक किया।

Edited and Compiled by
Smt. Kanchan ji
(Senior member ~"Yaatra" watsapp group)