ये कहानी एक कश्मीर के संत की है जो अपने जीवन निर्वाह के लिए छोले बेचते थे जो उनकी पत्नी बनाती थी ।एक दिन एक आदमी के पास कुछ खोटे सिक्के थे जो वो कई जगह चलाने की कोशिश कर रहा था , लेकिन कोई भी दूकानदार उसके खोटे सिक्के नहीं ले रहा था। वो थक कर मायूस बैठा था की उसकी नज़र उस छोले बेचते हुए संत पर पड़ी , उसकी रूचि वैसे तो छोले खाने में नहीं थी लेकिन उसने सोचा की कोशिश करता हूँ शायद ये छोले वाला ले ले , वैसे भी ये खोटे सिक्के कोई नहीं ले रहा है।उसने दो खोटे सिक्के दिए और कहा की मुझे इनके छोले दे दो, संत ने उन खोटे सिक्को के बदले छोले दे दिए।कुछ रोज़ उस आदमी ने अपने सारे खोटे सिक्के उस संत को चला दीए। अक्सर ऐसा होता है की दुकानदार ग्राहक कोN लूटता है लेकिन यहाँ उल्टा हो रहा था ग्राहक दुकानदार को लूट रहा था। कुछ ही दिनों में ये बात फ़ैल गयी की ये फ़क़ीर तो खोटे सिक्के भी ले लेता है । अब रोज़ एक दो लोग आ कर अपने खोटे सिक्के दे कर उस फ़क़ीर से छोले ले जाते ताकि वो किसी को मना नहीं करता था।पैसे खोटे दे कर जाते सौदा खरा ले कर जाते ।ये रोज़ की क्रिया बन गयी वो बेचारा फ़क़ीर रोज़ ठगा जाने लगा। एक दिन सुबह वो अपनी पूजा आराधना कर जब घर से निकलने लगा तो उसकी पत्नी ने कहा की वो आज छोले का खोमचा नहीं बना पायी और ये कह कर उसने उन खोटे सिक्को की थैली आगे रख दी की अब घर में सिर्फ येही खोटे सिक्के ही बचे है। उसने बताया की वो उन खोटे सिक्कों को ले कर बाजार गयी छोले , मसाले इत्यादि लेने , लेकिन किसी भी दुकानदार ने उन खोटे सिक्को के बदले सामान नहीं दिया। उस फ़क़ीर संत ने उस थैली में से कुछ सिक्के निकाल कर अपनी हथेली पर रख कर ऊपर खुदा की तरफ मुँह कर दुआ करता है ," ऐ खुदा , मुझे पता सी के ये खोटे सिक्के है, ऐसा नहीं की मुझे पता नहीं सी, मैं रख लैंदा रैया , इस आस्था नाल रख लैंदा सी की मैं खुद् भी खोटा , की जब मैं तेरे पास आवँगा तो तू मुझे न लौटा दे।तू मुझे कबूल कर ले। "
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