कृष्ण सुदामा से बार-बार कहते रहे कि कुछ मांगो मित्र, पर सुदामा ने बड़ी शालीनता से उनके हर अनुरोध को ठुकरा दिया। तीन मुट्ठी तन्दुल ले कर गए दरिद्र सुदामा जब द्वारिकाधीश से बिना कुछ लिए लौट गए तो रुक्मिणी ने कहा, "प्रभु! ये तो सबकुछ ठुकरा कर चले गए। अब क्या होगा?" भगवान बोले, "जानती हो देवी! व्यक्ति यदि अपने अंदर के लोभ को मार दे तो वह ईश्वर से भी पराजित नहीं होता। सुदामा को इस संसार में किसी चीज का लोभ ही नहीं है, वह तो केवल अपनी पत्नी के कहने पर आ गया है। उसे न अपने मित्र कृष्ण से कुछ चाहिए, न भगवान कृष्ण से। मैं जानता था कि यह मुझसे कुछ नहीं लेगा।" "पर प्रभु! सुदामा जी के परिवार की दशा तो देख रहे हैं न आप? ये कुछ मांगे न मांगे, पर उनके दुख को दूर करना आपका कर्तव्य है।" कृष्ण मुस्कुराए। कहा, "तुम नहीं जानती इस सुदामा को! सारा संसार जिस कृष्ण को भगवान कहता है, विडम्बना देखो कि वह चाह कर भी इस विपन्न ब्राह्मण को कुछ दे नहीं पायेगा। इसके घर पहुँचने से पहले मैं इसकी झोपड़ी को महल बना कर उसे मोतियों से भर दूंगा, पर यह उसे भी ठुकरा देगा। यह मेरे द्वारा दिये गए धन को तिनके से भी नहीं छुएगा। तभी तो इस विशाल संसार मे कृष्ण को अपना मित्र बता सकने का अधिकार समय ने केवल इसे ही दिया है। इस समय संसार में केवल हमीं दो लोग हैं जिन्होंने किसी से कुछ नहीं लिया। ।" यह कैसी बात हुई प्रभु? क्या सुदामा जी अपने परिवार की दरिद्रता दूर करने का प्रयत्न नहीं करेंगे? कृष्ण खिलखिला उठे। बोले, " इस कृष्ण को संसार मे सुदामा से अधिक कोई नहीं जानता देवी। वह जानता है कि द्वारिका पहुँच जाने से ही उसका कार्य सम्पन्न हो गया है, मैं अब उसके परिवार का हर दुख दूर कर दूंगा। बस वह अपने मुख से कुछ नहीं मांगेगा, न स्वयं मेरा सहयोग स्वीकार करेगा। रुक्मिणी कृष्ण को आश्चर्य से देखती रह गईं। कृष्ण बोले, "ऐसे भक्तों की भक्ति करने का मन होता है जो अपने आराध्य से भी कुछ न लेना चाहते हों। अपनी छोटी छोटी इच्छाओं के लिए ईश्वर को पुकारने वाले मनुष्य किसि लोक के नहीं होते । धर्म सुदामा जैसे निःस्वार्थ तपस्वियों के त्याग की शक्ति से जीवन पाता है। यह तो इसका प्रेम था जो मुझतक पैदल चला आया, नहीं तो सुदामा जैसे त्यागी ब्राह्मण जब पुकार दें, ईश्वर स्वयं उनकी चौकठ तक पहुँच जाएंगे। रुक्मिणी ने कृष्ण को प्रणाम कर के कहा, "धन्य हैं आप! जैसे आप, वैसे ही आपके मित्र..."
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