Wednesday, October 26, 2016

Wrong Judgement

Once upon a time, there was a man who was very helpful, kindhearted, and generous. He was a man who will help someone without asking anything to pay him back. He will help someone because he wants to and he loves to.  One day while walking into a dusty road, this man saw a purse, so he picked it up and noticed that the purse was empty. Suddenly a woman with a policeman shows up and gets him arrested.

The woman kept on asking where did he hide her money but the man replied, “It was empty when I found it, Mam.” The woman yelled at him, “Please give it back, It’s for my son’s school fees.”  The man noticed that the woman really felt sad, so he handed all his money.  He could say that the woman was a single mother.  The man said, “Take these, sorry for the inconvenience.”  The woman left and policeman held he man for further questioning.

The woman was very happy but when she counted her money later on, it was doubled, she was shocked.  One day while woman was going to pay her son’s school fees towards the school, she noticed that some skinny man was walking behind her.  She thought that he may rob her, so she approached a policeman standing nearby.  He was the same policeman, who she took along to inquire about her purse.  The woman told him about the man following her, but suddenly they saw that man collapsing.  They ran at him, and saw that he was the same man whom they arrested few days back for stealing a purse.

He looked very weak and woman was confused.  The policeman said to the woman, “He didn’t return your money, he gave you his money that day.  He wasn’t the thief but hearing about you son’s school fees, he felt sad and gave you his money.”  Later, they helped man stand up, and man told the woman, “Please go ahead and pay your son’s school fees, I saw you and followed you to be sure that no one steals your son’s school fees.”   The woman was speechless.

Moral: Life gives you strange experiences, sometime it shocks you and sometimes it may surprise you. We end up making wrong judgments or mistakes in our anger, desperation and frustration. However, when you get a second chance, correct your mistakes and return the favor. Be Kind and Generous. Learn to Appreciate what you are given.

Contributed by
Mrs Shruti Chaabra ji

आशा

दयानन्द नाम का एक बहुत बड़ा व्यापारी था और उसका इकलौता पुत्र सत्यप्रकाश जो पढ़ने से बहुत जी चुराता था और परीक्षा मे भी किसी और के भरोसे रहता और फेल हो जाता!पर एक दिन उसके जीवन मे ऐसी घटना घटी फिर उसने संसार से कोई आशाएं न रखी और फिर पुरी तरह से एकाग्रचित्त होकर चलने लगा!एक दिन दयानन्द का बेटा स्कूल से घर लोटा तो वो दहलीज से ठोकर खाके नीचे गिरा जैसै ही उसके माँ बाप ने देखा तो वो भागकर आये और गिरे हुये बेटे को उठाने लगे पर बेटे सत्यप्रकाश ने कहा आप रहने दिजियेगा मैं स्वयं उठ जाऊँगा!दयानन्द- ये क्या कह रहे हो पुत्र?सत्यप्रकाश- सत्य ही तो कह रहा हूँ पिताश्री इंसान को सहायता तभी लेनी चाहिये जब उसकी बहुत ज्यादा जरूरत हो और इंसान को ज्यादा आशाएं नही रखनी चाहिये नही तो एक दिन संसार उसे ऐसा गीराता है की वो फिर शायद कभी उठ ही न पाये!दयानन्द- आज ये कैसी बाते कर रह हो पुत्र? बार बार पुछने पर भी पुत्र कुछ न बोला.......
कई दिन गुजर गये फिर एक दिन दयानन्द- आखिर हमारा क्या अपराध है पुत्र, की तुम हमारे साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हो!सत्यप्रकाश- तो सुनिये पिता श्री एक दिन मैं स्कूल से जब घर लोट रहा था तो एक वृद्ध सज्जन माथे पर फल की टोकरी लेकर फल बेच रहे थे और चलते चलते वो ठोकर लगने से गिर गये जब मैं उन्हे उठाने पहुँचा तो उन्होंने कहा बेटा रहने दो मैं उठ जाऊँगा पर मैं आपको धन्यवाद देता हूँ की आप सहायता के लिये आगे आये!फिर उन्होने कहा पुत्र आप एक विद्यार्थी हो आपके सामने एक लक्ष्य भी है और मैं आपको सफलता का एक मंत्र देता हूँ की संसार से ज्यादा आशाएं कभी न रखना!फिर मैंने पूछा बाबा आप ऐसा क्यों कह रहे हो और संसार से न रखुं आशाएं तो किससे रखुं?तो उन्होने कहा मैं ऐसा इसलिये कह रहा हूँ पुत्र की जो गलती मैंने की वो गलती आप न करना और आशाएं स्वयं से रखना अपने सद्गुरु और इष्टदेवजी से रखना किसी और से ज्यादा आशाएं रखोगे तो एक दिन आपको असफलताएं ज्यादा और सफलताएं कम मिलेगी!मेरा एक इकलौता पुत्र जब उसका जन्म हुआ तो कुछ समय बाद मॆरी पत्नी एक एक्सीडेंट मे चल बसी और वो भी गम्भीर घायल हो गया उसके इलाज मे मैंने अपना सबकुछ लगा दिया वो पूर्ण स्वस्थ हो गया और वो स्कूल जाने लगा और मैं उससे ये आशाएं रखने लगा की एक दिन ये कामयाब इंसान बनेगा और धीरे धीरे मॆरी आशाएं बढ़ने लगी फिर एक दिन वो बहुत बड़ा आदमी बना की उसने मॆरी सारी आशाओं को एक पल मे पूरा कर दिया!तो मैंने पूछा की वो कैसे????
तो उन्होने कहा की वो ऐसे की जब मैं रात को सोया तो अपने घर मे पर जब उठा तो मैंने अपने आपको एक वृद्धआश्रम मे पाया और जब मैं घर पहुँचा तो वहाँ एक सज्जन पुरूष मिले उन्होने बताया की बाबा अब ये घर मेरा है आपका बेटा मुझे बेचकर चला गया! फिर मैं अपने सद्गुरु के दरबार मे गया क्षमा माँगने!फिर मैंने कहा पर बाबा सद्गुरु से क्षमा माँगने क्यों तो उन्होने कहा पुत्र वर्षों पहले उन्होंने मुझसे कहा था की बेटा संसार से ज्यादा आशाएं न रखना नही तो अंततः निराशा ही हाथ आयेगी और फिर मैंने उन्हे प्रणाम करके अपनी आगे की यात्रा शुरू की और आज मैं बहुत खुश हूँ क्योंकि आज मैं इस संसार से नही बस अपने आपसे अपने सद्गुरु से और अपने इष्टदेवजी से आशाएं रखता हूँ!और फिर मैं वहाँ से चला आया!दयानन्द- माना की वो बिल्कुल सही कह रहे थे पर बेटा इसमे हमारा क्या दोष है?सत्यप्रकाश- क्योंकि जब उन्होंने अपने पुत्र का नाम बताया तो मेरे पैरों तले से जमीन खिसक गई!क्योंकि उन्होंने अपने पुत्र का नाम दयानन्द बताया और वो दयानन्द जी कोई और नही आप ही हो!
एक बात हमेशा याद रखना हमेशा ऐसी आशाएं रखना जो तुम्हे लक्ष्य तक पहुँचा दे पर संसार से कभी मत रखना अपने आपसे, अपने सद्गुरु से और अपने ईष्ट से रखना क्योंकि जिसने भी संसार से आशाएं रखी अंततः वो निराश ही हुआ और जिसने नही रखी वो लक्ष्य तक पहुँचने मे सफल हुआ! मित्रों तो सफलता का एक सुत्र ये भी है की संसार से ज्यादा आशाएं कभी मत रखना
क्योंकि ये संसार जब भगवान श्री राम और श्री कृष्ण की आशाओं पर खरा न उतरा तो भला हम और आप क्या है!

Contributed by
Mrs  Bindu ji

Monday, October 17, 2016

भाग्य और कर्म

एक पान वाला था। जब भी पान खाने जाओ ऐसा लगता कि वह हमारा ही रास्ता देख रहा हो। हर विषय पर बात करने में उसे बड़ा मज़ा आता। कई बार उसे कहा की भाई देर हो जाती है जल्दी पान लगा दिया करो पर उसकी बात ख़त्म ही नही होती।एक दिन अचानक कर्म और भाग्य पर बात शुरू हो गई। तक़दीर और तदबीर की बात सुन मैनें सोचा कि चलो आज उसकी फ़िलासफ़ी देख ही लेते हैं। मैंने एक सवाल उछाल दिया।मेरा सवाल था कि आदमी मेहनत से आगे बढ़ता है या भाग्य से? और उसके जवाब से मेरे दिमाग़ के सारे जाले ही साफ़ हो गए। कहने लगा,आपका किसी बैंक में लाकर तो होगा? उसकी चाभियाँ ही इस सवाल का जवाब है। हर लाकर की दो चाभियाँ होती हैं। एक आप के पास होती है और एक मैनेजर के पास। आप के पास जो चाभी है वह है परिश्रम और मैनेजर के पास वाली भाग्य। जब तक दोनों नहीं लगतीं ताला नही खुल सकता। आप कर्मयोगी पुरुष हैं ओर मैनेजर भगवान अाप को अपनी चाभी भी लगाते रहना चाहिये।पता नहीं ऊपर वाला कब अपनी चाभी लगा दे। कहीं ऐसा न हो की भगवान अपनी भाग्यवाली चाभी लगा रहा हो और हम परिश्रम वाली चाभी न लगा पायें और ताला खुलने से रह जाये ।

Ccontributed by
Mrs Shruti Chaabra

दही की कीमत

गुप्ता जी जब लगभग पैंतालीस वर्ष के थे तब उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया था। लोगों ने दूसरी शादी की सलाह दी परन्तु गुप्ता जी ने यह कहकर मना कर दिया कि पुत्र के रूप में पत्नी की दी हुई भेंट मेरे पास हैं, इसी के साथ पूरी जिन्दगी अच्छे से कट जाएगी।

पुत्र जब वयस्क हुआ तो गुप्ता जी ने पूरा कारोबार पुत्र के हवाले कर दिया। स्वयं कभी मंदिर और आॅफिस में बैठकर समय व्यतीत करने लगे।

पुत्र की शादी के बाद गुप्ता जी और अधिक निश्चित हो गये। पूरा घर बहू को सुपुर्द कर दिया।

पुत्र की शादी के लगभग एक वर्ष बाद दुपहरी में गुप्ता जी खाना खा रहे थे, पुत्र भी ऑफिस से आ गया था और हाथ–मुँह धोकर खाना खाने की तैयारी कर रहा था।

उसने सुना कि पिता जी ने बहू से खाने के साथ दही माँगा और बहू ने जवाब दिया कि आज घर में दही उपलब्ध नहीं है। खाना खाकर पिताजी ऑफिस चले गये।

पुत्र अपनी पत्नी के साथ खाना खाने बैठा। खाने में प्याला भरा हुआ दही भी था। पुत्र ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और खाना खाकर स्वयं भी ऑफिस चला गया।

लगभग दस दिन बाद पुत्र ने गुप्ता जी से कहा- ‘‘ पापा आज आपको कोर्ट चलना है,आज आपका विवाह होने जा रहा है।’’

पिता ने आश्चर्य से पुत्र की तरफ देखा और कहा-‘‘बेटा मुझे पत्नी की आवश्यकता नही है और मैं तुझे इतना स्नेह देता हूँ कि शायद तुझे भी माँ की जरूरत नहीं है, फिर दूसरा विवाह क्यों?’’

पुत्र ने कहा ‘‘ पिता जी, न तो मै अपने लिए माँ ला रहा हूँ न आपके लिए पत्नी,
मैं तो केवल आपके लिये दही का इन्तजाम कर रहा हूँ।

कल से मै किराए के मकान मे आपकी बहू के साथ रहूँगा तथा ऑफिस मे एक कर्मचारी की तरह वेतन लूँगा ताकि आपकी बहू को दही की कीमत का पता चले।’’

Contributed by
Mr Kamaljeet

ईश्वर का रूप

एक बार अकबर ने बीरबल से पूछा : हमारे खुदा ज़मीन पर खुद नही आते वे अपने पैगम्बर ज़मीन पर भेजते हैं
पर आपके भगवान बार-बार दुनिया में आते हैं ऐसा क्यो ?

बीरबल ने थोड़ा समय लिया एक दिन बीरबल ने अकबर से कहा ; आज यमुना मे नौका विहार करेंगे । अकबर का बेटा छोटा था बीरबल ने उसे भी साथ ले जाने को कहा । अकबर मान गया । बीरबल ने दासी को समझा कर एक युक्ति बनाई , अकबर के बेटे की जगह एक मोम के पुतले को राज़सी वस्त्र पहना कर दासी की गोद में दे दिया और जिस नाव में अकबर बैठा था उसी नाव में बिठा दिया । साथ मे बहुत सी नौकायों में तैराक भी साथ चल दिये ।
नाव मझधार में हिचकोले खाने लगी दासी ने अरे---रे---रे---ओ चिल्लाते हुए उस कृतिम बच्चे को नदी में गिरा दिया और रोने बिल्खने लगी ।
अपने बालक को बचाने के लिए अकबर देखते ही नदी मे कूद गया , खूब इधर उधर गोते मार कर बड़ी मुश्किल से उसने बच्चे को पानी में से निकाला । वह बच्चा तो मोम का पुतला था । अकबर कहने लगा " बीरबल !

यह सारी शरारत तुम्हारी है तुमने मेरी बेइज्जती करवाने के लिए ही ऐसा किया है " बीरबल : जहाँपनाह !
आपकी बेइज्जती के लिए के लिए नही ; बल्कि आपके प्रश्न का उतर देने के लिए ऐसा किया है ।
आप इसे अपना शिशु समझकर इसे बचाने के लिए नदी मे कूद पड़े जबकि आप को पता था कि इन सारी नौकायों मे नाविक व तैराक बैठे थे और आपके मन्त्री भी साथ थे , आपने किसी को भी नदी में कूदने का आदेश क्यों नही दिया ।
अकबर :  बीरबल यदि अपना बेटा डूब रहा हो तो अपने मन्त्रियों या तैराकों को आदेश देने की फुरस्त ही कहां होती है , खुद-ब-खुद ही कूदा जाता है ।

बीरबल : जैसे अपने बेटे की रक्षा के लिए आप खुद नदी मे कूद पड़े ऐसे ही हमारे भगवान जब अपने बालकों को संसार की मुसीबतों में डुबता हुआ देखते हैं तो वह किसी पैगम्बर को नही भेजते वरन् वह खुद प्रगट होते हैं । अपने बच्चों की रक्षा हेतू वह समय समय पर गुरू रूप धारन कर संसार में अपने भक्तों को इस मझधार में डुबने से बचाते हैं ।

Contributed by
Mr Sanjeev Ji

Friday, October 14, 2016

The Father and the son

A wealthy man and his son liked to collect rare works of art. They had everything in their collection, from Picasso and Raphael. They would often sit together and admire these great works of art.
     When the Vietnam conflict broke out, the son went to war. He was very courageous and died in battle while rescuing another soldier. The father was notified and grieved deeply for his only son.
     About a month later, just before Christmas, there was a knock at the door. A young man stood at the door with a large package in his hands. He said, "Sir, you don't know me, I am the soldier for whom your son gave his life." "He saved many lives that day, and he was carrying me to safety when a bullet struck him in the heart and killed him instantly." "He often talked about you, and your love of art." The young man held out this package. "I know this isn't much." "I'm not a great artist, but I think your son would have wanted you to have this."
     The father opened the package. It was a portrait of his son, painted by the young man. He stared in awe at the way the soldier captured the personality of his son in the painting. The father was so drawn to the eyes that his own eyes welled with tears. He thanked the young man and offered to pay for the picture. "Oh, no sir, I could never repay what your son did for me." "It's a gift."
     The father hung the picture over his mantle. Every time visitors came to his home he took them to see the portrait of his son before he showed them any of the other great works he had collected.
     The man died a few months later. There was to be a great auction of his art collection. Many influential people gathered, excited over seeing the great paintings and having the opportunity to purchase one for their collection.
     On the platform sat the painting of the son. The auctioneer pounded his gavel. "We will start the bidding with the picture of the son." "Who will bid for this picture?" There was silence. Then a voice in the back of the room angrily shouted, "We want to see the famous paintings." "Skip this one." But the auctioneer persisted. "Will somebody bid for this painting." "Who will start the bidding? $100? $200?" Another angry voice shouted, "We didn't come to see this picture." "We came to see the Van Gogh's and the Rembrandts." "Get on with the real bids!" But the auctioneer continued. "The son!" "The son!" "Who will take the son?"
     Finally a voice came from the back of the room. It was the long time gardener of the father and his son. "I'll give $10.00 for the painting." Being a poor man it was all he could afford. The auctioneer shouted, "We have $10, who will bid $20?" "Give it to him for $10." "Let's see the masters." "$10 is the bid won't someone bid $20?" the auctioneer continued. The crowd was becoming angry. They didn't want the picture of the son. They wanted the more worthy investments for their collections. The auctioneer pounded his gavel. "Going once, twice, SOLD for $10.!"
     A man sitting in the second row shouted, "Now let's get on with the collection!" The auctioneer laid down his gavel. "I'm sorry the auction is over." "When I was called to conduct this auction I was told of a secret stipulation in the will." "I was not allowed to reveal that stipulation until now." "Only the painting of the son would be auctioned." "Who ever bought the picture of the son would inherit the entire estate, including the paintings." "The man who took the son got everything!"
     Remember God gave His only Son 2000 years ago to die on the cross. Much like the auctioneer, His message today is: "The son, the son, who will take the son?" Because you see who ever takes the son gets everything.

Contributed by
Mrs Shruti Chaabra

Thursday, October 13, 2016

आत्म खजाना

एक भिखारी था । उसने सम्राट होने के लिए कमर कसी । चौराहे पर अपनी फटी-पुरानी चादर बिछा दी, अपनी हाँडी रख दी और सुबह-दोपहर-शाम भीख माँगना शुरू कर दिया क्योंकि उसे सम्राट होना था । भीख माँगकर भी भला कोई सम्राट हो सकता है ? किंतु उसे इस बात का पता नहीं था ।

भीख माँगते-माँगते वह बूढ़ा हो गया और मौत ने दस्तक दी । मौत तो किसी को नहीं छोड़ती । वह बूढ़ा भी मर गया ।

लोगों ने उसकी हाँडी फेंक दी, सड़े-गले बिस्तर नदी में बहा दिये। जमीन गंदी हो गयी थी तो सफाई करने के लिए थोड़ी खुदाई की । खुदाई करने पर लोगों को वहाँ बहुत बड़ा खजाना गड़ा हुआ मिला ।

तब लोगों ने कहा : 'कितना अभागा था ! जीवनभर भीख माँगता रहा । जहाँ बैठा था अगर वहीं जरा-सी खुदाई करता तो सम्राट हो जाता !'

ऐसे ही हम जीवनभर बाहर की चीजों की भीख माँगते रहते हैं किन्तु जरा-सा भीतर गोता मारें , ईश्वर को पाने के लिए ध्यान का जरा-सा अभ्यास करें तो उस आत्मखजाने को भी पा सकते हैं , जो हमारे अंदर ही छुपा हुआ है ।

Contributed by
Mr Ashish ji

Friday, October 7, 2016

The Three Trees

Once upon a mountain top, three little trees stood and dreamed of what they wanted to become when they grew up.

The first little tree looked up at the stars and said: “I want to hold treasure. I want to be covered with gold and filled with precious stones. I’ll be the most beautiful treasure chest in the world!”

The second little tree looked out at the small stream trickling by on its way to the ocean. “I want to be traveling mighty waters and carrying powerful kings. I’ll be the strongest ship in the world!”

The third little tree looked down into the valley below where busy men and women worked in a busy town. “I don’t want to leave the mountain top at all. I want to grow so tall that when people stop to look at me, they’ll raise their eyes to heaven and think of God. I will be the tallest tree in the world.”

Years passed. The rain came, the sun shone, and the little trees grew tall. One day three woodcutters climbed the mountain.

The first woodcutter looked at the first tree and said, “This tree is beautiful. It is perfect for me.” With a swoop of his shining axe, the first tree fell.

“Now I shall be made into a beautiful chest. I shall hold wonderful treasure!” the first tree said.

The second woodcutter looked at the second tree and said, “This tree is strong. It is perfect for me.” With a swoop of his shining axe, the second tree fell.

“Now I shall sail mighty waters!” thought the second tree. “I shall be a strong ship for mighty kings!”

The third tree felt her heart sink when the last woodcutter looked her way. She stood straight and tall and pointed bravely to heaven.

But the woodcutter never even looked up. “Any kind of tree will do for me,” he muttered. With a swoop of his shining axe, the third tree fell.

The first tree rejoiced when the woodcutter brought her to a carpenter’s shop. But the carpenter fashioned the tree into a feedbox for animals.

The once beautiful tree was not covered with gold, nor with treasure. She was coated with sawdust and filled with hay for hungry farm animals.

The second tree smiled when the woodcutter took her to a shipyard, but no mighty sailing ship was made that day. Instead, the once strong tree was hammered and sawed into a simple fishing boat. She was too small and too weak to sail on an ocean, or even a river; instead, she was taken to a little lake.

The third tree was confused when the woodcutter cut her into strong beams and left her in a lumberyard.

“What happened?” the once tall tree wondered. “All I ever wanted was to stay on the mountain top and point to God...”

Many, many days and night passed. The three trees nearly forgot their dreams.

But one night, golden starlight poured over the first tree as a young woman placed her newborn baby in the feedbox.

“I wish I could make a cradle for him,” her husband whispered.

The mother squeezed his hand and smiled as the starlight shone on the smooth and the sturdy wood. “This manger is beautiful,” she said.

And suddenly the first tree knew he was holding the greatest treasure in the world.

One evening a tired traveler and his friends crowded into the old fishing boat. The traveler fell asleep as the second tree quietly sailed out into the lake.

Soon a thundering and thrashing storm arose. The little tree shuddered. She knew she did not have the strength to carry so many passengers safely through with the wind and the rain.

The tired man awakened. He stood up, stretched out his hand, and said, “Peace.” The storm stopped as quickly as it had begun.

And suddenly the second tree knew he was carrying the king of heaven and earth.

One Friday morning, the third tree was startled when her beams were yanked from the forgotten woodpile. She flinched as she was carried through an angry jeering crowd. She shuddered when soldiers nailed a man’s hands to her.

She felt ugly and harsh and cruel.

But on Sunday morning, when the sun rose and the earth tremble with joy beneath her, the third tree knew that God’s love had changed everything.

It had made the third tree strong.

And every time people thought of the third tree, they would think of God.

That was better than being the tallest tree in the world.

The next time you feel down because you didn’t get what you want, sit tight and be happy because God is thinking of something better to give you.

Contributed by
Mrs Shruti Chaabra

Wednesday, October 5, 2016

Dont wait

The story is told of a woman who bought a parrot to keep her company, but she returned it the next day.

*“This bird doesn't talk,”* she told the owner.

*”Does he have a mirror in his cage?”* he asked. *“Parrots love mirrors. They see their reflection and start a conversation.”*

The woman bought a mirror and left. The next day she returned; the bird still wasn't talking.

*"How about a ladder? Parrots love ladders.The happy parrot is a talkative parrot.”*

The woman bought a ladder and left. But the next day, she was back.

*“Does your parrot have a swing? No? Well, that’s the problem. Once he starts swinging, he’ll talk up a storm.”*

The woman reluctantly bought a swing and left.
When she walked into the store the next day, her countenance had changed.

*“The parrot died,”* she said.

The pet store owner was shocked.

*“I’m so sorry. Tell me, did he ever say anything?”* he asked.

*“Yes, right before it died,”* the woman replied.

*“In a weak voice, it asked me, ‘Don’t they sell any food at that pet store?’"*

Sometimes we forget what’s really important in life. We get so caught up in things that are good while neglecting the things that are truly necessary.

Take a moment to do a *“priority check”, and strive for what is most* important today.

*Don’t wait for the parrot to die...!!*

Contributed by
Mrs Shruti Chaabra ji

Saturday, October 1, 2016

The Parrot

Two disciples came to a Master, they wanted to be initiated.

The Master gave one parrot to each and told the disciples to go to an absolutely lonely place where nobody is watching, and kill the parrot, and come back.

The first came back within minutes. He went outside the house, went behind the house, looked — there was nobody — killed the parrot came back. The Master said, “Wait. Let the other one come back too.”

Days passed, months passed, and then years passed. After three years the other man came back with the parrot still alive.

He said, “Take your parrot back. If this is a condition for initiation it is impossible to fulfill. I searched in every possible way: I went into the mountains, I went into dark caves, underground caves, but it is impossible.”

The Master said, “Why is it impossible?”

He said, “I was present, the parrot was not alone — one thing. I closed my eyes, I blindfolded myself, I put the parrot behind me, but the parrot was present! I drugged the parrot, I made the parrot unconscious, but then suddenly I became aware that God is present and he is present everywhere. I have tried hard for three years; I could not find a place where he is not. So please take your parrot back. I am sorry — I have failed.”

The Master laughed and said, “You have succeeded; the first one has failed!”

He told the first one, “Get out, get lost! You are simply stupid. It will take lives for you to understand what I have to teach.” But to the other he said, “You are accepted, you are welcomed. This was a test — you have passed it.”

There is no need to go anywhere to find God; he is everywhere.

And the way to honour him is to love life and to love all that life contains.

Contributed by
Mrs Shruti Chaabra ji