एक संत थे बड़े निस्पृह, सदाचारी एवं लोकसेवी। जीवन भर निस्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई में लगे रहते।एक बार विचरण करते हुए देवताओं की टोली उनकी कुटिया के समीप से निकली। संत साधनारत थे, साधना से उठे, देखा देवगण खड़े हैं, आदरसम्मान किया, आसन दिया।देवतागण बोले- “आपके लोकहितार्थ किए गए कार्यों को देखकर हमें प्रसन्नता हुई, आप जो चाहें वरदान माँग लें।“ संत विस्मय से बोले- “सब तो है मेरे पास कोई इच्छा भी नहीं है, जो माँगा जाए।“ देवगण एकस्वर में बोले- “आप को माँगना ही पड़ेगा अन्यथा हमारा बड़ा अपमान होगा।“ संत बड़े असमंजस में पड़े कि कोई तो इच्छा शेष नहीं है माँगे तो क्या माँगे, बड़े विनीत भाव से बोले- “आप सर्वज्ञ हैं, स्वयं समर्थ हैं, आप ही अपनी इच्छा से दे दें मुझे स्वीकार होगा।“देवता बोले- “तुम दूसरों का कल्याण करो!”संत बोले- “क्षमा करें देव! यह दुष्कर कार्य मुझ से न बन पड़ेगा।“देवता बोले- “इसमें दुष्कर क्या है?”
संत बोले- “मैंने आजतक किसी को दूसरा समझा ही नहीं सभी तो मेरे अपने हैं, फिर दूसरों का कल्याण कैसे बन पड़ेगा?”देवतागण एक दूसरे को देखने लगे कि संतों के बारे में बहुत सुना था आज वास्तविक संत के दर्शन हो गये।देवताओं ने संत की कठिनाई समझ कर अपने वरदान में संशोधन किया।
“अच्छा आप जहाँ से भी निकलेंगे और जिस पर भी आपकी परछाई पड़ेगी उस उसका कल्याण होता चला जाएगा।“संत ने बड़े विनम्र भाव से प्रार्थना की- “हे देवगण! यदि एक कृपा और करदें, तो बड़ा उपकार होगा। मेरी छाया से किसका कल्याण हुआ कितनों का उद्धार हुआ, इसका भान मुझे न होने पाए, अन्यथा मेरा अहंकार मुझे ले डूबेगा।“देवतागण संत के विनम्र भाव सुनकर नतमस्तक हो गए।कल्याण सदा ऐसे ही संतों के द्वारा संभव है।...
Compiled and edited by
Sh Deep ji
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