Wednesday, December 30, 2015

मौत की आग

गुरू नानक जी के समय संगत का नियम था कि वह सुबह सुबह गुरू जी की हजूरी में भक्ति के शब्द पढ़ती थी| गुरू साहिब ने देखा कि एक छोटा सा लड़का रोज आकर चुपचाप आकर उनके पीछे खड़ा होकर शब्द सुनता|
एक दिन गुरु जी ने पूछा- बेटा, तू रोज सवेरे यहां क्यों आता है, तेरा यह सोने का समय होता है, तुझे वाणी के पाठ से क्या मिलता है? इस उमऱ मे तो तुझे साथियों के साथ खेलना चाहिए, पर तू यहां क्यों आ जाता है?
गुरू साहिब की बात का जबाव लड़के ने बड़े प्यार से दिया," एक बार मेरी मां ने मुझे चूल्हे में लकड़ियां जलाने को कहा| मैनै देखा कि आग पहले छोटी-२ लकड़ियों को लगती है| पर मोटी व बड़ी लकड़ियों को मुशि्कल से आग लगती है| उस समय से मैं डरने लगा कि बड़ी उम्र वालों से पहले मुझे मौत की आग न लग जाए| अतः मैं हमेशा आपकी संगत में रहना चाहता हूं|"
गुरू साहिब उसकी समझदारी देखकर बहुत खुश हूए और बोले," तू उम्र मे बच्चा हैै, पर अक्ल का बूढ़ा है|"
हम क्यों नहीं, और हमें तो हमारे सतगुरू ने कोई कमी नहीं रखी| कमी हमारी अपनी है| आओ हम एक अच्छे सत्संगी बनें जी|

Contributed by
Mrs Gunjan ji

किसान

एक अतिश्रेष्ठ व्यक्ति थे , एक दिन उनके पास एक निर्धन आदमी आया और बोला की मुझे अपना खेत कुछ साल के लिये उधार दे दीजिये ,मैं उसमे खेती करूँगा और खेती करके कमाई करूँगा,

वह अतिश्रेष्ठ व्यक्ति बहुत दयालु थे
उन्होंने उस निर्धन व्यक्ति को अपना खेत दे दिया और साथ में पांच किसान भी सहायता के रूप में खेती करने को दिये और कहा की इन पांच  किसानों को साथ में लेकर खेती करो, खेती करने में आसानी होगी,
इस से तुम और अच्छी फसल की खेती करके कमाई कर पाओगे।
वो निर्धन आदमी ये देख के बहुत खुश हुआ की उसको उधार में खेत भी मिल गया और साथ में पांच सहायक किसान भी मिल गये।

लेकिन वो आदमी अपनी इस ख़ुशी में बहुत खो गया, और वह पांच किसान अपनी मर्ज़ी से खेती करने लगे और वह निर्धन आदमी अपनी ख़ुशी में डूबा रहा,  और जब फसल काटने का समय आया तो देखा की फसल बहुत ही ख़राब  हुई थी , उन पांच किसानो ने खेत का उपयोग अच्छे से नहीं किया था न ही अच्छे बीज डाले ,जिससे फसल अच्छी हो सके |

जब वह अतिश्रेष्ठ दयालु व्यक्ति ने अपना खेत वापस माँगा तो वह निर्धन व्यक्ति रोता हुआ बोला की मैं बर्बाद हो गया , मैं अपनी ख़ुशी में डूबा रहा और इन पांच किसानो को नियंत्रण में न रख सका न ही इनसे अच्छी खेती करवा सका।

वह अतिश्रेष्ठ दयालु व्यक्ति हैं -'' भगवान"

निर्धन व्यक्ति हैं -"हम"

खेत है -"हमारा शरीर"

पांच किसान हैं हमारी इन्द्रियां--आँख,कान,नाक,जीभ और मन |
प्रभु ने हमें यह शरीर रुपी खेत अच्छी फसल(कर्म) करने को दिया है और हमें इन पांच किसानो को अर्थात इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में रख कर कर्म करने चाहियें ,जिससे जब वो दयालु प्रभु जब ये शरीर वापस मांग कर हिसाब करें तो हमें रोना न पड़े.

Contributed by
Sh Dhiraj ji

Tuesday, December 29, 2015

सब में राम

श्री रामचरितमानस लिखने के दौरान तुलसीदास जी ने लिखा -

सिय राम मय सब जग जानी ;
करहु प्रणाम जोरी जुग पानी !

अर्थात

सब में राम हैं और हमें उनको हाथ जोड़ कर प्रणाम करना चाहिये !

यह लिखने के उपरांत
तुलसीदास जी जब अपने गाँव की तरफ जा रहे थे तो किसी बच्चे ने आवाज़ दी -महात्मा जी उधर से मत जाओ बैल गुस्से में है और आपने लाल वस्त्र भी पहन रखा है ! तुलसीदास जी ने विचार किया हू ! कल का बच्चा हमें उपदेश दे रहा है ! अभी तो लिखा था कि सबमे राम हैं ;उस बैल को प्रणाम करूगा और चला जाऊंगा ! पर जैसे ही वे आगे बढे बैल ने उन्हें मारा और वे गिर पड़े ! किसी तरह से वे वापिस वहा जा पहुचे जहा श्री रामचरितमानस लिख रहे थे सीधा चौपाई पकड़ी और जैसे ही उसे फाड़ने जा रहे थे कि
श्री हनुमान जी ने प्रगट हो कर कहा  -तुलसीदास जी ये क्या कर रहे हो ? तुलसीदास जी ने क्रोधपूर्वक कहा -यह चौपाई गलत है !
और उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया !

हनुमान जी ने मुस्करा कर कहा -चौपाई तो एकदम सही है आपने बैल में तो भगवान को
देखा पर बच्चे में क्यों नहीं ? आखिर उसमे भी तो भगवान थे ;वे तो आपको रोक रहे थे पर आप ही नहीं माने !

Contributed by
Sh Sanjeev ji

Saturday, December 26, 2015

कांच और हीरा

एक राजा का दरबार लगा हुआ था क्योंकि सर्दी का दिन था, इसलिये राजा का दरवार खुले मे बैठा था पूरी आम सभा सुबह की धूप मे बैठी थीl

महाराज ने सिंहासन के सामने एक टेबल जैसी कोई कीमती चीज रखी थी पंडित लोग दीवान आदि सभी दरवार मे बैठे थे राजा के परिवार के सदस्य भी बैठे थे

उसी समय एक व्यक्ति आया और प्रवेश मागा।

प्रवेश मिल गया तो उसने कहा मेरे पास दो वस्तुए है मै हर राज्य के राजा के पास जाता हूँ और अपनी बात रखता हूँ।

कोई परख नही पाता सब हार जाते हैंं और मै विजेता बनकर घूम रहा हूँ।

अब आपके नगर मे आया हूँ।

राजा ने बुलाया और कहा क्या बात है।

तब उसने दोनो वस्तुये टेबल पर रख दी बिल्कुल समान आकार, समान रुप रंग, समान प्रकाश सब कुछ नख सिख समान।

राजा ने कहा ये दोनो वस्तुए एक है।

तब उस व्यक्ति ने कहा हाँ दिखाई तो एक सी देती हैं लेकिन हैं भिन्न।

इनमे से एक है बहुत कीमती हीरा है और एक है काँच का टुकडा।

लेकिन रूप रंग सब एक है।

कोइ आज तक परख नही पाया की कौन सा हीरा है और कौन सा काँच।

कोइ परख कर बताये की ये हीरा है या ये काँच।

अगर परख खरी निकली तो मे हार जाउँगा और यह कीमती हीरा मै आपके राज्य की तिजोरी मे जमा करवा दूंगा ।

यदि कोइ न पहचान पाया तो इस हीरे की जो कीमत है उतनी धनराशि आपको मुझे देनी होगी।

इसी प्रकार मे कइ राज्यो से जीतता आया हूँ।

राजा ने कहा मै तो नही परख सकूंगा दीवान बोले हम भी हिम्मत नही कर सकते क्योंकि दोनो बिल्कुल समान है।

कोइ हिम्मत नही जुटा पाया।

हारने पर पैसे देने पडेगे इसका कोई सवाल नही था क्योकि राजा के पास बहुत धन है।

राजा की प्रतिष्ठा गिर जायेगी इसका सबको भय था अगर कोइ व्यक्ति पहचान नही पाया।

आखिरकार पीछे थोडी हलचल हुई।

एक अंधा आदमी हाथ मे लाठी लेकर उठा।

उसने कहा मुझे महाराज के पास ले चलो मैने सब बाते सुनी है।

और यह भी सुना कि कोइ परख नही पा रहा है।

एक अवसर मुझे भी दो।

एक आदमी के सहारे वह राजा के पास पहुँचा अौर उसने राजा से प्रार्थना की मै तो जनम से अंधा हूँ फिर भी मुझे एक अवसर दिया जाये।

मैं भी एक बार अपनी बुद्धि को परखू और हो सकता है कि सफल भी हो जाऊ और यदि सफल न भी हुआ तो वैसे भी आप तो हारे ही हैं।

राजा को लगा कि इसे अवसर देने मे क्या हरज है।

राजा ने कहा ठीक है।

तब उस अंधे आदमी को दोनो चीजे छुआ दी गयी और पूछा गया इसमे कौन सा हीरा है और कौन सा काँच यही परखना है।

कथा कहती है कि उस आदमी ने एक मिनट मे कह दिया कि यह हीरा है और यह काँच जो आदमी इतने राज्यो को जीतकर आया था ।

आदमी नतमस्तक हो गया और बोला सही है।

आपने पहचान लिया, धन्य हो आप अपने वचन के मुताबिक यह हीरा मै आपके राज्य की तिजोरी मे दे रहा हूँ।

सब बहुत खुश हो गये और जो आदमी आया था वह भी बहुत प्रसन्न हुआ कि कम से कम कोई तो मिला परखने वाला।

वह राजा और अन्य सभी लोगो ने उस अंधे व्यक्ति से एक ही जिज्ञासा जताई कि तुमने यह कैसे पहचाना कि यह हीरा है और वह काँच

उस अंधे ने कहा की सीधी सी बात है।

मालिक धूप मे हम सब बैठे हैं।

मैने दोनो को छुआ।

जो ठंडा रहा वह हीरा जो गरम हो गया वह काँच ।

जीवन मे भी देखना जो बात बात मे गरम हो जाये उलझ जाये वह काँच...
            जो विपरीत परिस्थिति मे भी ठंडा रहे वह हीरा है।

Contributed by
Sh Deep ji

Friday, December 25, 2015

The Parachute

Air Commodore Vishal was a Jet Pilot. In a combat mission his fighter plane was destroyed by a missile. He however ejected himself and parachuted safely. He won acclaims and appreciations from many.

After five years one day he was sitting with his wife in a restaurant. A man from another table came to him and said "You're Captain Vishal ! You flew jet fighters. You were shot down!"

"How in the world did you know that?" asked Vishal.

"I packed your parachute," the man smiled and replied.
Vishal gasped in surprise and gratitude and thought if parachute hadn't worked, I wouldn’t be here today.

Vishal couldn't sleep that night, thinking about that man. He wondered how many times I might have seen him and not even said 'Good morning, how are you?' or anything because, he was a fighter pilot and that person was just a safety worker"

So friends, who is packing your parachute?
Everyone has someone who provides what they need to make it through the day.

We need many kinds of parachutes when our plane is shot down – we need the physical parachute, the mental parachute, the emotional parachute, and the spiritual parachute.
We call on all these supports before reaching safety.

Sometimes in the daily challenges that life gives us, we miss what is really important.

We may fail to say hello, please, or thank you, congratulate someone on something wonderful that has happened to them, give a compliment, or just do something nice for no reason.

As you go through this week, this month, this year, recognize the people who pack your parachute.

I just want to thank everyone who packed my parachute this year one way or the other - through your words, deeds, prayers etc!!

Contributed by
Sh Bharat ji

Thursday, December 24, 2015

एहसास

पढ़ाई पूरी करने के बाद एक छात्र किसी बड़ी कंपनी में नौकरी पाने की चाह में इंटरव्यू देने के लिए पहुंचा....

छात्र ने बड़ी आसानी से पहला इंटरव्यू पास कर लिया...

अब फाइनल इंटरव्यू
कंपनी के डायरेक्टर को लेना था...

और डायरेक्टर को ही तय
करना था कि उस छात्र को नौकरी पर रखा जाए या नहीं...

डायरेक्टर ने छात्र का सीवी (curricular vitae)  देखा और पाया  कि पढ़ाई के साथ- साथ यह  छात्र ईसी (extra curricular activities)  में भी हमेशा अव्वल रहा...

डायरेक्टर- "क्या तुम्हें  पढ़ाई के दौरान
कभी छात्रवृत्ति (scholarship)  मिली...?"

छात्र- "जी नहीं..."

डायरेक्टर- "इसका मतलब स्कूल-कॉलेज  की फीस तुम्हारे पिता अदा करते थे.."

छात्र- "जी हाँ , श्रीमान ।"

डायरेक्टर- "तुम्हारे पिताजी  क्या काम  करते  है?"

छात्र- "जी वो लोगों के कपड़े धोते हैं..."

यह सुनकर कंपनी के डायरेक्टर ने कहा- "ज़रा अपने हाथ तो दिखाना..."

छात्र के हाथ रेशम की तरह मुलायम और नाज़ुक थे...

डायरेक्टर- "क्या तुमने कभी  कपड़े धोने में अपने  पिताजी की मदद की...?"

छात्र- "जी नहीं, मेरे  पिता हमेशा यही चाहते थे
कि मैं पढ़ाई  करूं और ज़्यादा से ज़्यादा किताबें
पढ़ूं...

हां , एक बात और, मेरे पिता बड़ी तेजी  से कपड़े धोते हैं..."

डायरेक्टर- "क्या मैं तुम्हें  एक काम कह सकता हूं...?"

छात्र- "जी, आदेश कीजिए..."

डायरेक्टर- "आज घर वापस जाने के बाद अपने पिताजी के हाथ धोना...
फिर कल सुबह मुझसे आकर मिलना..."

छात्र यह सुनकर प्रसन्न हो गया...
उसे लगा कि अब नौकरी  मिलना तो पक्का है,

तभी तो  डायरेक्टर ने कल फिर बुलाया है...

छात्र ने घर आकर खुशी-खुशी अपने पिता को ये सारी बातें बताईं और अपने हाथ दिखाने को कहा...

पिता को थोड़ी हैरानी हुई...
लेकिन फिर भी उसने बेटे
की इच्छा का मान करते हुए अपने दोनों हाथ उसके
हाथों में दे दिए...

छात्र ने पिता के हाथों को धीरे-धीरे धोना शुरू किया। कुछ देर में ही हाथ धोने के साथ ही उसकी आंखों से आंसू भी झर-झर बहने लगे...

पिता के हाथ रेगमाल (emery paper) की तरह सख्त और जगह-जगह से कटे हुए थे...

यहां तक कि जब भी वह  कटे के निशानों पर  पानी डालता, चुभन का अहसास
पिता के चेहरे पर साफ़ झलक जाता था...।

छात्र को ज़िंदगी में पहली बार एहसास हुआ कि ये
वही हाथ हैं जो रोज़ लोगों के कपड़े धो-धोकर उसके
लिए अच्छे खाने, कपड़ों और स्कूल की फीस का इंतज़ाम करते थे...

पिता के हाथ का हर छाला सबूत था उसके एकेडैमिक कैरियर की एक-एक
कामयाबी का...

पिता के हाथ धोने के बाद छात्र को पता ही नहीं चला कि उसने  उस दिन के बचे हुए सारे कपड़े भी एक-एक कर धो डाले...

उसके पिता रोकते ही रह गए , लेकिन छात्र अपनी धुन में कपड़े धोता चला गया...

उस रात बाप- बेटे ने काफ़ी देर तक बातें कीं ...

अगली सुबह छात्र फिर नौकरी  के लिए कंपनी के  डायरेक्टर के ऑफिस में था...

डायरेक्टर का सामना करते हुए छात्र की आंखें गीली थीं...

डायरेक्टर- "हूं , तो फिर कैसा रहा कल घर पर ?
क्या तुम अपना अनुभव मेरे साथ शेयर करना पसंद करोगे....?"

छात्र- " जी हाँ , श्रीमान कल मैंने जिंदगी का एक वास्तविक अनुभव सीखा...

नंबर एक... मैंने सीखा कि सराहना क्या होती है...
मेरे पिता न होते तो मैं पढ़ाई में इतनी आगे नहीं आ सकता था...

नंबर दो... पिता की मदद करने से मुझे पता चला कि किसी काम को करना कितना सख्त और मुश्किल होता है...

नंबर तीन.. . मैंने रिश्तों की अहमियत पहली बार
इतनी शिद्दत के साथ महसूस की..."

डायरेक्टर- "यही सब है जो मैं अपने मैनेजर में देखना चाहता हूं...

मैं यह नौकरी केवल उसे  देना चाहता हूं जो दूसरों की मदद की कद्र करे,
ऐसा व्यक्ति जो काम किए जाने के दौरान दूसरों की तकलीफ भी महसूस करे...

ऐसा शख्स जिसने
सिर्फ पैसे को ही जीवन का ध्येय न बना रखा हो...

मुबारक हो, तुम इस नौकरी  के पूरे हक़दार हो..."

आप अपने बच्चों को बड़ा मकान दें, बढ़िया खाना दें,
बड़ा टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर सब कुछ दें...

लेकिन साथ ही  अपने बच्चों को यह अनुभव भी हासिल करने दें कि उन्हें पता चले कि घास काटते हुए कैसा लगता है ?

उन्हें  भी अपने हाथों से ये  काम करने दें...

खाने के बाद कभी बर्तनों को धोने का अनुभव भी अपने साथ घर के सब बच्चों को मिलकर करने दें...

ऐसा इसलिए
नहीं कि आप मेड पर पैसा खर्च नहीं कर सकते,
बल्कि इसलिए कि आप अपने बच्चों से सही प्यार करते हैं...

आप उन्हें समझाते हैं कि पिता कितने भी अमीर
क्यों न हो, एक दिन उनके बाल सफेद होने ही हैं...

सबसे अहम हैं आप के बच्चे  किसी काम को करने
की कोशिश की कद्र करना सीखें...

एक दूसरे का हाथ
बंटाते हुए काम करने का जज्ब़ा अपने अंदर
लाएं...

Contributed by
SH Gothi ji

Tuesday, December 22, 2015

Play Wise Play Fool

There once lived a great mathematician in a village. He was often called by the local king to advice on matters related to the economy. His reputation had spread as far as Taxila in the North and Kanchi in the South. So it hurt him very much when the village headman told him, "You may be a great mathematician who advises the king on economic matters but your son does not know the value of gold or silver."

The mathematician called his son and asked, "What is more valuable - gold or silver?" "Gold," said the son. "That is correct. Why is it then that the village headman makes fun of you, claims you do not know the value of gold or silver? He teases me every day. He mocks me before other village elders as a father who neglects his son. This hurts me. I feel everyone in the village is laughing behind my back because you do not know what is more valuable, gold or silver. Explain this to me, son."

So the son of the mathematician told his father the reason why the village headman carried this impression. "Every day on my way to school, the village headman calls me to his house. There, in front of all village elders, he holds out a silver coin in one hand and a gold coin in other. He asks me to pick up the more valuable coin. I pick the silver coin. He laughs, the elders jeer, everyone makes fun of me. And then I go to school. This happens every day. That is why they tell you I do not know the value of gold or silver."

The father was confused. His son knew the value of gold and silver, and yet when asked to choose between a gold coin and silver coin always picked the silver coin. "Why don't you pick up the gold coin?" he asked. In response, the son took the father to his room and showed him a box. In the box were at least a hundred silver coins. Turning to his father, the mathematician's son said, "The day I pick up the gold coin the game will stop. They will stop having fun and I will stop making money."

Point: Sometimes in life, we have to play the fool because our seniors and our peers, and sometimes even our juniors like it. That does not mean we lose in the game of life. It just means allowing others to win in one arena of the game, while we win in the other arena of the game. We have to choose which arena matters to us and which arenas do not.

Specially Contributed by
Mrs Shruti Chhabra

The Bamboo

ONE DAY I DECIDED TO QUIT
I quit my job,
my relationship,
my spirituality…
I wanted to quit my life.
I went to the woods to have one last talk with god

“God”, I asked, “Can you give me one good reason not to quit?”.

His answer surprised me… “Look around”, He said. “Do you see the fern and the bamboo ?

“Yes”, I replied.

“When I planted the fern and the bamboo seeds, I took very good care of them. I gave them light. I gave them water. The fern quickly grew from the earth. Its brilliant green covered the floor. Yet nothing came from the bamboo seed. But I did not quit on the bamboo.

In the second year the Fern grew more vibrant and plentiful. And again, nothing came from the bamboo seed. But I did not quit on the bamboo.

He said, “In year three there was still nothing from the bamboo seed. But I would not quit.

In year four, again, there was nothing from the bamboo seed. I would not quit.” He said.

“Then in the fifth year a tiny sprout emerged from the earth. Compared to the fern it was seemingly small and insignificant…But just 6 months later the bamboo rose to over 100 feet tall.

It had spent the five years growing roots. Those roots made it strong and gave it what it needed to survive.

I would not give any of my creations a challenge it could not handle.”

He asked me. “Did you know, my child, that all this time you have been struggling, you have actually been growing roots”.

“I would not quit on the bamboo. I will never quit on you.”

“Don’t compare yourself to others.” He said.

”The bamboo had a different Purpose than the fern. Yet they both make the forest beautiful.”

"Your time will come”, God said to me. “You will rise high”.

“How high should I rise?” I asked.

“How high will the bamboo rise?” He asked in return.

“As high as it can?” I questioned.

”Yes.” He said, “Give Me glory by rising as high as you can.”

I left the forest and brought back this story.

Never, Never, Never, Give up!! "In life, each  relationship will have feelings and differences. ....it's Always better to be melted in feelings than to be frozen with differences"

Just enjoy Life & Believe in God, For his Plan never fails.

Contributed by
Sh Sanjeev ji

Monday, December 21, 2015

इंसान और भगवान्

एक प्राचीन मंदिर की छत पर कुछ कबूतर राजीखुशी रहते थे।जब वार्षिकोत्सव की तैयारी के लिये मंदिर का जीर्णोद्धार होने लगा तब कबूतरों को मंदिर छोड़कर पास के चर्च में जाना पड़ा। चर्च के ऊपर रहने वाले कबूतर भी नये कबूतरों के साथ राजीखुशी रहने लगे क्रिसमस नज़दीक था तो चर्च का भी रंगरोगन शुरू हो गया। अत: सभी कबूतरों को जाना पड़ा नये ठिकाने की तलाश में। किस्मत से पास के एक मस्जिद में उन्हे जगह मिल गयी और मस्जिद में रहने वाले कबूतरों ने उनका खुशी-खुशी स्वागत किया। रमज़ान का समय था  मस्जिद की साफसफाई भी शुरू हो गयी तो सभी कबूतर वापस उसी प्राचीन मंदिर की छत पर आ गये। एक दिन मंदिर की छत पर बैठे कबूतरों ने देखा कि नीचे चौक में धार्मिक उन्माद एवं दंगे हो गये। छोटे से कबूतर ने अपनी माँ से पूछा " माँ ये कौन लोग हैं ?" माँ ने कहा " ये मनुष्य हैं"। छोटे कबूतर ने कहा " माँ ये लोग आपस में लड़ क्यों रहे हैं ?" माँ ने कहा " जो मनुष्य मंदिर जाते हैं वो हिन्दू कहलाते हैं,
चर्च जाने वाले ईसाई और मस्जिद जाने वाले मनुष्य मुस्लिम कहलाते हैं।" छोटा कबूतर बोला " माँ एसा क्यों ? जब हम मंदिर में थे तब हम कबूतर कहलाते थे, चर्च में गये तब भी कबूतर कहलाते थे और जब मस्जिद में गये तब भी कबूतर कहलाते थे, इसी तरह यह लोग भी केवल मनुष्य ही कहलाने चाहिये ......चाहे कहीं भी जायें।" माँ बोली " मेनें, तुमने और हमारे साथी कबूतरों ने उस एक ईश्वरीय सत्ता का अनुभव किया है इसलिये हम इतनी ऊंचाई पर शांतिपूर्वक रहते हैं। इन लोगों को उस एक ईश्वरीय सत्ता का अनुभव होना बाकी है , इसलिये यह लोग हमसे नीचे रहते हैं और आपस में दंगे फसाद करते हैं।"बात छोटी सी है, पर मनन करने योग्य है।

Contributed by
Smt. Kanchan ji

एक प्राचीन मंदिर की छत पर कुछ कबूतर राजीखुशी रहते थे।जब वार्षिकोत्सव की तैयारी के लिये मंदिर का जीर्णोद्धार होने लगा तब कबूतरों को मंदिर छोड़कर पास के चर्च में जाना पड़ा। चर्च के ऊपर रहने वाले कबूतर भी नये कबूतरों के साथ राजीखुशी रहने लगे क्रिसमस नज़दीक था तो चर्च का भी रंगरोगन शुरू हो गया। अत: सभी कबूतरों को जाना पड़ा नये ठिकाने की तलाश में। किस्मत से पास के एक मस्जिद में उन्हे जगह मिल गयी और मस्जिद में रहने वाले कबूतरों ने उनका खुशी-खुशी स्वागत किया। रमज़ान का समय था  मस्जिद की साफसफाई भी शुरू हो गयी तो सभी कबूतर वापस उसी प्राचीन मंदिर की छत पर आ गये। एक दिन मंदिर की छत पर बैठे कबूतरों ने देखा कि नीचे चौक में धार्मिक उन्माद एवं दंगे हो गये। छोटे से कबूतर ने अपनी माँ से पूछा " माँ ये कौन लोग हैं ?" माँ ने कहा " ये मनुष्य हैं"। छोटे कबूतर ने कहा " माँ ये लोग आपस में लड़ क्यों रहे हैं ?" माँ ने कहा " जो मनुष्य मंदिर जाते हैं वो हिन्दू कहलाते हैं,
चर्च जाने वाले ईसाई और मस्जिद जाने वाले मनुष्य मुस्लिम कहलाते हैं।" छोटा कबूतर बोला " माँ एसा क्यों ? जब हम मंदिर में थे तब हम कबूतर कहलाते थे, चर्च में गये तब भी कबूतर कहलाते थे और जब मस्जिद में गये तब भी कबूतर कहलाते थे, इसी तरह यह लोग भी केवल मनुष्य ही कहलाने चाहिये ......चाहे कहीं भी जायें।" माँ बोली " मेनें, तुमने और हमारे साथी कबूतरों ने उस एक ईश्वरीय सत्ता का अनुभव किया है इसलिये हम इतनी ऊंचाई पर शांतिपूर्वक रहते हैं। इन लोगों को उस एक ईश्वरीय सत्ता का अनुभव होना बाकी है , इसलिये यह लोग हमसे नीचे रहते हैं और आपस में दंगे फसाद करते हैं।"बात छोटी सी है, पर मनन करने योग्य है।

Contributed by
Smt. Kanchan ji

What to teach ?

In childhood, I remember my father used to get me chocolates... n ask me to share with all family members before I eat... Today I forgot the taste n name of that chocolate... but learnt n experienced the "joy of giving"

Today we as parents give equal chocolates... same toys to both our kids... n tell them..."tum apna khao... tum apna khelo... jhagda mat karo"....

Here we are not teaching peace... but teaching them how to think "only for self"... n kids start using words like "my chocolate ...my toys....my life... my choice"....

"My" is nothing but ego... n once ego comes, wisdom leaves... only knowledge is left behind !!!

Teach your children to never walk alone in life n on the path to prosperity... Teach them to bring others with them too... Love others n make them prosperous too... Spread love n happiness

Contributed by
Mrs Padma ji

Worries

As humans, our brains are much more advanced than other mammals'. The human mind has infinite potential. There are still large parts of the human brain we don't use - imagine what we would be capable of if we used our minds to its full potential.

The human mind with its infinite potential has its negative sides as well that affect most of us.Our minds like to wonder and oftentimes it's not easy to recognize that the reality we're living in is not real, but created by our minds.

Most people don't live in the now. Because it's very easy to stay stuck in the past or worry about the future, creating "what if" scenarios that quickly become our reality.

When we are not in the best financial situation and live month to month, losing our home or anything equally horrible can become something that is on our mind a lot - and if something is on our mind a lot, it will become our reality, something that is no longer an event that has a very slight chance of happening in the future, but something real. Even though it is not happening right now and it will probably never happen, we still feel as horrible as we would feel if it was happening right now.

Anxiety is based on this feeling. We fear that something will happen to us - health problems, financial problems, relationship problems, basically anything - that has no reality in the present moment. We fear something, because it has not happened yet. Fear is always of something in the future.

Anxiety and fear is what we feel when we believe that the problems we think about are actually real in this moment.

We all do this. Some people more, some people less, but we all do it, it's part of modern human behavior. It is very important to recognize when we are worrying about the future. When we feel like we can't see clearly, most likely we are not living our real reality. So ask yourself if what you're worried about is real right now. No? Well then, why are you living like it's your reality? When you recognize this, a burden so huge will be lifted off you that you will feel like you're able to fly.

When recognizing that you have been living in the fake reality of your worries, you should also ask yourself what your reality really is, because living like this makes us forget what our reality is. It makes us blind to our real world and when we realize how we've been seeing the world, we will see how blinded we were. So just go over what you really have in your life, you can even write it down to help it stick in your mind. You are healthy, have a loving family, partner or friend, have a nice home, have food on the table etc.

When you do this all the troubles of the world will be lifted off you and you will feel how easy life really is. We create most of our problems in our minds, we never really have them. And we create all of our suffering in our minds. Always remember that suffering is optional and when you feel overwhelmed with worries and anxiety, sit down and discover your real reality. See the world how it really is. There is so much beauty around each of us and life can be so easy, our minds simply insist on making it complicated.

“The primary cause of unhappiness is never the situation but your thoughts about it. Be aware of the thoughts you are thinking. Separate them from the situation, which is always neutral. It is as it is.” - Eckhart Tolle

"If your eyes are blinded with your worries, you cannot see the beauty of the sunset." - Jiddu Krishnamurti

"It is always the false that makes you suffer. Abandon the false and you are free of pain; truth makes happy, truth liberates." - Sri Nisargadatta Maharaj

Contributed  by
Sh Girish ji

धैर्य

गुरु-शिष्य भ्रमण करते हुए एक वन से गुजर रहे थे। कुछ दूर से एक झरने का पानी बह कर आ रहा था। गुरूजी को प्यास लगी। उन्होंने शिष्य को कमण्डल में पानी भर कर लाने के लिए कहा।
शिष्य ने पानी के पास पहुँच कर देखा कि वहां से अभी-अभी बैल गाड़ियाँ निकलीं हैं, जिससे वहां का पानी गंदा हो गया था और सूखे पत्ते तैर रहे थे।

शिष्य ने आकर गुरूजी से कहा- " कहीं और से पानी का प्रबंध करना होगा।" लेकिन गुरूजी ने शिष्य को बार-बार वहीं से पानी लाने को कहा। हर बार शिष्य देखता कि पानी गंदा था फिर भी ....। पांचवी बार भी जब वहीं से पानी लाने को कहा गया, तब शिष्य के चेहरे पर असंतोष और खीज के भाव थे।

शिष्य गुरूजी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता था, अत: वह फिर वहां गया। इस बार जाने पर शिष्य ने देखा कि झरने का जल शांत एवं स्वच्छ था। वह प्रसन्नता पूर्वक गुरूजी के पीने के लिए पात्र में जल भर लाया।

शिष्य के हाथ से जल ग्रहण करते हुए गुरूजी मुस्कराए और शिष्य को समझाया - " वत्स ! हमारे मन रूपी जल को भी प्रायः कुविचारों के बैल दूषित करते रहते हैं। अत:हमें अपने मन के झरने के शांत होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए, तभी मन में स्वच्छ विचार आयेंगे। उद्वेलित मन से कभी कोइ निर्णय नहीं लेना चाहिए।

ज़िन्दगी की सीख :
अनुकूल परिणाम पाने के लिए प्रतीक्षा करें और धैर्य रखें।

Contributed by
Sh Sanjiv ji

MIracle

An eight-year-old child heard her parents talking about her little brother. All she knew was that he was very sick and they had no money left. They were moving to a smaller house because they could not afford to stay in the present house after paying the doctor's bills. Only a very costly surgery could save him now and there was no one to loan them the money.

When she heard her daddy say to her tearful mother with whispered desperation, 'Only a miracle can save him now', the little girl went to her bedroom and pulled her piggy bank from its hiding place in the closet. She poured all the change out on the floor and counted it carefully.

Clutching the precious piggy bank tightly, she slipped out the back door and made her way six blocks to the local drugstore. She took a quarter from her bank and placed it on the glass counter.

"And what do you want?" asked the pharmacist.

"It's for my little brother," the girl answered back. "He's really very sick and I want to buy a miracle."

"I beg your pardon?" said the pharmacist.

"His name is Andrew and he has something bad growing inside his head and my daddy says only a miracle can save him. So how much does a miracle cost?"

"We don't sell miracles here, child. I'm sorry," the pharmacist said, smiling sadly at the little girl.

"Listen, I have the money to pay for it. If it isn't enough, I can try and get some more. Just tell me how much it costs."

In the shop was a well-dressed customer. He stooped down and asked the little girl, "What kind of a miracle does you brother need?"

"I don't know," she replied with her eyes welling up. "He's really sick and mommy says he needs an operation. But my daddy can't pay for it, so I have brought my savings".

"How much do you have?" asked the man.

"One dollar and eleven cents; but I can try and get some more", she answered barely audibly.

"Well, what a coincidence," smiled the man, "A dollar and eleven cents - the exact price of a miracle for little brothers."

He took her money in one hand and held her hand with the other. He said, "Take me to where you live. I want to see your brother and meet your parents. Let's see if I have the kind of miracle you need."

That well-dressed man was Dr Carlton Armstrong, a neurosurgeon. The operation was completed without charge and it wasn't long before Andrew was home again and doing well.

"That surgery," her mom whispered, "was a real miracle. I wonder how much it would have cost."

The little girl smiled. She knew exactly how much the miracle cost ... one dollar and eleven cents ... plus the faith of a little child.

Perseverance can make miracles happen! Miracle can come in various forms - as a doctor, as a lawyer, as a teacher, as a police ,as a friend, as a stranger and many others..

A river cuts the rock not because of its power, but because of its consistency.

Never lose your hope & keep walking towards your vision.

Somewhere I felt it has closely touched my life...... there's a message for us all.....

Contributed by Ojasvita ji

Sunday, December 20, 2015

अनदेखा

एक बार एक युवक अपनी कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने वाला था। उसकी बहुत दिनों से एक शोरूम में रखी स्पोर्टस कार लेने की इच्छा थी। उसने अपने पिता से कॉलेज की पढ़ाई पूरी होने पर उपहारस्वरूप वह कार लेने की बात कही क्योंकि वह जानता था कि उसके पिता उसकी इच्छा पूरी करने में समर्थ हैं। कॉलेज के आखिरी दिन उसके पिता ने उसे अपने कमरे में बुलाया और कहा कि वे उसे बहुत प्यार करते हैं तथा उन्हें उस पर गर्व है। फिर उन्होंने उसे एक सुंदर कागज़ में लिपटा उपहार दिया । उत्सुकतापूर्वक जब युवक ने उस कागज़ को खोला तो उसे उसमें एक आकर्षक जिल्द वाली ‘भगवद् गीता’ मिली जिसपर उसका नाम भी सुनहरे अक्षरों में लिखा था। यह देखकर वह युवक आगबबूला हो उठा और अपने पिता से बोला कि इतना पैसा होने पर भी उन्होंने उसे केवल एक ‘भगवद् गीता’ दी। यह कहकर वह गुस्से से गीता वहीं पटककर घर छोड़कर निकल गया। बहुत वर्ष बीत गए और वह युवक एक सफल व्यवसायी बन गया। उसके पास बहुत धन-दौलत और भरापूरा परिवार था। एक दिन उसने सोचा कि उसके पिता तो अब काफी वृद्ध हो गए होंगे। उसने अपने पिता से मिलने जाने का निश्चय किया क्योंकि उस दिन के बाद से वह उनसे मिलने कभी नहीं गया था। अभी वह अपने पिता से मिलने जाने की तैयारी कर ही रहा था कि अचानक उसे एक तार मिला जिसमें लिखा था कि उसके पिता की मृत्यु हो गई है और वे अपनी सारी संपत्ति उसके नाम कर गए हैं। उसे तुरंत वहाँ बुलाया गया था जिससे वह सारी संपत्ति संभाल सके। वह उदासी और पश्चाताप की भावना से भरकर अपने पिता के घर पहुँचा। उसे अपने पिता की महत्वपूर्ण फाइलों में वह ‘भगवद् गीता’ भी मिली जिसे वह वर्षों पहले छोड़कर गया था। उसने भरी आँखों से उसके पन्ने पलटने शुरू किए।  तभी उसमें से एक कार की चाबी नीचे गिरी जिसके साथ एक बिल भी था। उस बिल पर उसी शोरूम का नाम लिखा था जिसमें उसने वह स्पोर्टस कार पसंद की थी तथा उस पर उसके घर छोड़कर जाने से पिछले दिन की तिथि भी लिखी थी। उस बिल में लिखा था कि पूरा भुगतान कर दिया गया है।

कई बार हम भगवान की आशीषों और अपनी प्रार्थनाओं के उत्तरों को अनदेखा कर जाते हैं क्योंकि वे उस रूप में हमें प्राप्त नहीं होते जिस रूप में हम उनकी आशा करते हैं.