Hinduism- Legends and Beliefs
Friday, April 28, 2023
ब्रज की मिट्टी
Friday, March 4, 2022
भक्त का मौन
कृष्ण सुदामा से बार-बार कहते रहे कि कुछ मांगो मित्र, पर सुदामा ने बड़ी शालीनता से उनके हर अनुरोध को ठुकरा दिया। तीन मुट्ठी तन्दुल ले कर गए दरिद्र सुदामा जब द्वारिकाधीश से बिना कुछ लिए लौट गए तो रुक्मिणी ने कहा, "प्रभु! ये तो सबकुछ ठुकरा कर चले गए। अब क्या होगा?" भगवान बोले, "जानती हो देवी! व्यक्ति यदि अपने अंदर के लोभ को मार दे तो वह ईश्वर से भी पराजित नहीं होता। सुदामा को इस संसार में किसी चीज का लोभ ही नहीं है, वह तो केवल अपनी पत्नी के कहने पर आ गया है। उसे न अपने मित्र कृष्ण से कुछ चाहिए, न भगवान कृष्ण से। मैं जानता था कि यह मुझसे कुछ नहीं लेगा।" "पर प्रभु! सुदामा जी के परिवार की दशा तो देख रहे हैं न आप? ये कुछ मांगे न मांगे, पर उनके दुख को दूर करना आपका कर्तव्य है।" कृष्ण मुस्कुराए। कहा, "तुम नहीं जानती इस सुदामा को! सारा संसार जिस कृष्ण को भगवान कहता है, विडम्बना देखो कि वह चाह कर भी इस विपन्न ब्राह्मण को कुछ दे नहीं पायेगा। इसके घर पहुँचने से पहले मैं इसकी झोपड़ी को महल बना कर उसे मोतियों से भर दूंगा, पर यह उसे भी ठुकरा देगा। यह मेरे द्वारा दिये गए धन को तिनके से भी नहीं छुएगा। तभी तो इस विशाल संसार मे कृष्ण को अपना मित्र बता सकने का अधिकार समय ने केवल इसे ही दिया है। इस समय संसार में केवल हमीं दो लोग हैं जिन्होंने किसी से कुछ नहीं लिया। ।" यह कैसी बात हुई प्रभु? क्या सुदामा जी अपने परिवार की दरिद्रता दूर करने का प्रयत्न नहीं करेंगे? कृष्ण खिलखिला उठे। बोले, " इस कृष्ण को संसार मे सुदामा से अधिक कोई नहीं जानता देवी। वह जानता है कि द्वारिका पहुँच जाने से ही उसका कार्य सम्पन्न हो गया है, मैं अब उसके परिवार का हर दुख दूर कर दूंगा। बस वह अपने मुख से कुछ नहीं मांगेगा, न स्वयं मेरा सहयोग स्वीकार करेगा। रुक्मिणी कृष्ण को आश्चर्य से देखती रह गईं। कृष्ण बोले, "ऐसे भक्तों की भक्ति करने का मन होता है जो अपने आराध्य से भी कुछ न लेना चाहते हों। अपनी छोटी छोटी इच्छाओं के लिए ईश्वर को पुकारने वाले मनुष्य किसि लोक के नहीं होते । धर्म सुदामा जैसे निःस्वार्थ तपस्वियों के त्याग की शक्ति से जीवन पाता है। यह तो इसका प्रेम था जो मुझतक पैदल चला आया, नहीं तो सुदामा जैसे त्यागी ब्राह्मण जब पुकार दें, ईश्वर स्वयं उनकी चौकठ तक पहुँच जाएंगे। रुक्मिणी ने कृष्ण को प्रणाम कर के कहा, "धन्य हैं आप! जैसे आप, वैसे ही आपके मित्र..."
Friday, November 5, 2021
तुलसीदास जी की इच्छा
काशी में एक जगह पर तुलसीदास रोज रामचरित मानस को गाते थे । उनकी कथा को बहुत सारे भक्त सुनने आते थे। लेकिन एक बार गोस्वामी प्रातःकाल शौच करके आ रहे थे तो कोई एक प्रेत से इनका मिलन हुआ। उस प्रेत ने प्रसन्न होकर गोस्वामीजी को कहा कि मैं आपको कुछ देना चाहता हूँ। आपने जो शौच के बचे हुए जल से जो सींचन किया है मैं तृप्त हुआ हूँ। मैं आपको कुछ देना चाहता हूँ ।
गोस्वामीजी बोले – भैया, हमारे मन तो केवल एक ही चाह है कि प्रभु श्री राम जी का दर्शन हमें हो जाए। राम की कथा तो हमने लिख दी है, गा दी है।पर दर्शन अभी तक साक्षात् नहीं हुआ है। उस प्रेत ने कहा कि महाराज! मैं यदि दर्शन करवा सकता तो मैं अब तक मुक्त न हो जाता? मैं खुद प्रेत योनि में पड़ा हुआ हूँ,
तुलसीदास जी बोले – फिर भैया हमको कुछ नहीं चाहिए।
तो उस प्रेत ने कहा – सुनिए महाराज! मैं आपको दर्शन तो नहीं करवा सकता लेकिन दर्शन कैसे होंगे उसका रास्ता आपको बता सकता हूँ ।।
तुलसीदास जी बोले कि बताइये ।।
बोले आप जहाँ पर कथा कहते हो, बहुत सारे भक्त सुनने आते हैं, अब आपको तो मालूम नहीं लेकिन मैं जानता हूँ आपकी कथा में रोज हनुमानजी भी सुनने आते हैं।
तुलसीदास बोले कहाँ बैठते हैं ? प्रेत ने बताया कि सबसे पीछे कम्बल ओढ़कर, एक दीन हीन एक कोढ़ी के स्वरूप में व्यक्ति बैठता है और जहाँ चप्पल लोग उतारते हैं वहां पर बैठते हैं। उनके पैर पकड़ लेना वो हनुमान जी ही हैं ।।गोस्वामीजी बड़े खुश हुए हैं। आज जब कथा हुई है गोस्वामीजी की नजर उसी व्यक्ति पर है कि वो कब आएंगे? और जैसे ही वो व्यक्ति आकर बैठे पीछे, तो गोस्वामीजी आज अपने आसन से कूद पड़े हैं और दौड़ पड़े। जाकर चरणों में गिर गए हैं ।।वो व्यक्ति बोला कि महाराज आप व्यासपीठ पर हो और मेरे चरण पकड़ रहे हो। मैं एक दीन हीन कोढ़ी व्यक्ति हूँ। मुझे तो न कोई प्रणाम करता है और न कोई स्पर्श करता है। आप व्यासपीठ छोड़कर मुझे प्रणाम कर रहे हो ?
गोस्वामीजी बोले कि महाराज आप सबसे छुप सकते हो मुझसे नहीं छुप सकते हो। अब आपके चरण मैं तब तक नहीं छोडूंगा जब तक आप राम से नहीं मिलवाओगे। जो ऐसा कहा तो हनुमानजी अपने दिव्य स्वरूप में प्रकट हो गए ।।आज तुलसीदास जी ने कहा कि कृपा करके मुझे राम से मिलवा दो। अब और कोई अभिलाषा नहीं बची। राम जी का साक्षात्कार हो जाए हनुमानजी, आप तो राम जी से मिलवा सकते हो। अगर आप नहीं मिलवाओगे तो कौन मिलवायेगा ? हनुमानजी बोले कि आपको रामजी जरूर मिलेंगे और मैं मिलवाऊँगा लेकिन उसके लिए आपको चित्रकूट चलना पड़ेगा, वहाँ आपको भगवन मिलेंगे ।।
गोस्वामीजी चित्रकूट गए हैं। सामने से घोड़े पर सवार होकर दो सुकुमार राजकुमार आये। एक गौर वर्ण और एक श्याम वर्ण और गोस्वमीजी इधर से निकल रहे हैं ।।उन्होंने पूछा कि हमको रास्ता बता तो हम भटक रहे हैं ।।गोस्वामीजी ने रास्ता बताया कि बेटा इधर से निकल जाओ और वो निकल गए। अब गोस्वामीजी पागलों की तरह खोजते हुए घूम रहे हैं कब मिलेंगे? कब मिलेंगे ?
हनुमानजी प्रकट हुए और बोले कि मिले?
गोस्वामीजी बोले – कहाँ मिले ?
हनुमानजी ने सिर पकड़ लिया और बोले अरे अभी मिले तो थे। जो घोड़े पर सवार राजकुमार थे वो ही तो थे। आपसे ही तो रास्ता पूछा और कहते हो मिले नहीं। चूक गए और ये गलती हम सब करते हैं। न जाने कितनी बार भगवान हमारे सामने आये होंगे और हम पहचान नहीं पाए। कितनी बार वो सामने खड़े हो जाते हैं हम पहचान नहीं पाते। न जाने वो किस रूप में आ जाये ।।
गोस्वामीजी कहते हैं हनुमानजी आज बहुत बड़ी गलती हो गई। फिर कृपा करवाओ। फिर मिलवाओ ।।
हनुमानजी बोले कि थोड़ा धैर्य रखो। एक बार और फिर मिलेंगे। गोस्वामीजी बैठे हैं। मन्दाकिनी के तट पर स्नान करके बैठे हैं। स्नान करके घाट पर चन्दन घिस रहे हैं। मगन हैं और गा रहे हैं। श्री राम जय राम जय जय राम। ह्रदय में एक ही लग्न है कि भगवान कब आएंगे। श्री राम , ठाकुर जी स्वरूप में आये पर तुसलीदास जी पहचान न पाए और कहा " बाबा… चन्दन तो आपने बहुत प्यारा घिसा है। थोड़ा सा चन्दन हमें लगा दो ।।"
गोस्वामीजी को लगा कि कोई बालक होगा। चन्दन घिसते देखा तो आ गया। तो तुरंत लेकर चन्दन ठाकुर जी को दिया और ठाकुर जी लगाने लगे, हनुमानजी महाराज समझ गए कि आज बाबा फिर चूके जा रहे हैं। आज ठाकुर जी फिर से इनके हाथ से निकल रहे हैं ।। हनुमानजी तोता बनकर आ गए शुक रूप में और घोषणा कर दी कि..
चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर ।
तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक देत रघुवीर ।।
हनुमानजी ने घोसणा कर दी कि अब मत चूक जाना।।
आज जो आपसे चन्दन ग्रहण कर रहे हैं ये साक्षात् रघुनाथ हैं और जो ये वाणी गोस्वामीजी के कान में पड़ी तो गोस्वामीजी चरणों में गिर गए ठाकुर जी तो चन्दन लगा रहे थे। बोले प्रभु अब आपको नहीं छोडूंगा। जैसे ही पहचाना तो प्रभु अपने दिव्य स्वरूप में प्रकट हो गए हैं ठाकुर जी अंतर्ध्यान हो गए और वो झलक आखों में बस गई ह्रदय तक उतरकर। फिर कोई अभिलाषा जीवन में नहीं रही है
Sunday, October 24, 2021
गुरु का शिष्य
उज्जैन के राजा भरथरी के पास 365 रसोइए थे, जो राजा और उसके परिवार और अतिथियों के लिए भोजन बनाने के लिए। एक रसोइए को वर्ष में केवल एक ही बार भोजन बनाने का मोका मिलता था। लेकिन इस दौरान भरथरी जब गुरु गोरखनाथ जी के चरणों में चले गये तो भिक्षा मांगकर खाने लगे थे। एक बार गुरु गोरखनाथजी ने अपने शिष्यों से कहा, ‘देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है।‘ शिष्यों शिष्यों के मन में ईर्ष्या जगी . गुरु ने राजा कई परिक्षा लेने का निर्णय लिया
गुरु गोरखनाथ जी ने राजा भरथरी से कहा, ‘भरथरी! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियां ले आओ।’ राजा भरथरी नंगे पैर गए, जंगल से लकड़ियां एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे।गोरखनाथ जी ने दूसरे शिष्यों से कहा, ‘जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझ गिर जाए।‘ चेले गए और ऐसा धक्का मारा कि बोझ गिर गया और भरथरी गिर गए। भरथरी ने बोझ उठाया, लेकिन न चेहरे पर शिकन,न थी . गुरु जी ने चेलों से कहा, ‘देखा! भरथरी ने क्रोध को जीत लिया है।’शिष्य बोले, ‘गुरुजी! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए।’ थोड़ा सा आगे जाते ही गुरुजी ने योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ जी भरथरी को महल दिखा रहे थे। पर राजा प्रलोभन में नहीं फंसे
शिष्यों ने कहा, गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिए। गोरखनाथजी ने कहा, अच्छा भरथरी हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना पड़ता है। जाओ, तुमको एक महीना मरुभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी।’ भरथरी अपने निर्दिष्ट मार्ग पर चल पड़े। पहाड़ी इलाका लांघते-लांघते राजस्थान की मरुभूमि में पहुंचे। धधकती बालू, कड़ाके की धूप मरुभूमि में पैर रखो तो बस जल जाए। एक दिन, दो दिन यात्रा करते-करते छः दिन बीत गए।
सातवें दिन गुरु गोरखनाथजी अदृश्य शक्ति से अपने प्रिय चेलों को भी साथ लेकर वहां पहुंचे। गोरखनाथ जी बोले, ‘देखो, यह भरथरी जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूं। वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा।’ अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते-चलते भरथरी का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े, मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो। गुरु जी की आज्ञा थी मरुभूमि में यात्रा करने की।’ कूदकर दूर हट गए। गुरु जी प्रसन्न हो गए कि देखो! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।’
गोरखनाथ जी दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए, लेकिन और शिष्यों के मन में ईर्ष्या थी। शिष्य बोले, ‘गुरुजी! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।’ गोरखनाथ जी (रूप बदल कर) भर्तृहरि से मिले और बोले, ‘जरा छाया का उपयोग कर लो।’ भरथरी बोले, ‘नहीं, मेरे गुरुजी की आज्ञा है कि नंगे पैर मरुभूमि में चलूं।’
गोरखनाथ जी ने सोचा, ‘अच्छा! कितना चलते हो देखते हैं।’ थोड़ा आगे गए तो गोरखनाथ जी ने योगबल से कांटे पैदा कर दिए। ऐसी कंटीली झाड़ी कि कंथा (फटे-पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र) फट गया। पैरों में शूल चुभने लगे, फिर भी भरथरी ने ‘आह’ तक नहीं की।
भरथरी तो और अंतर्मुख हो गए, ’यह सब सपना है, गुरु जी ने जो आदेश दिया है, वही तपस्या है। यह भी गुरुजी की कृपा है’।
अंतिम परीक्षा के लिए गुरु गोरखनाथ जी ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया। प्यास के मारे भरथरी के प्राण कंठ तक आ गये। तभी गोरखनाथ जी ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी।
एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरु आज्ञा भंग तो नहीं हो रही है। उनका इतना सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिए।
भरथरी ने दंडवत प्रणाम किया। गुरुजी बोले, तुम्हें जो मांगना है, वो मांग लो।
भर्तृहरि बोले, ‘गुरुजी! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है। गोरखनाथ बोले, ‘नहीं भरथरी! अनादर मत करो। तुम्हें कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ मांगना ही पड़ेगा।’ इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सूई दिखाई दी। उसे उठाकर भरथरी बोले, ‘गुरुजी! कंठा फट गया है, सूई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंठा सी लूं।’
गोरखनाथ जी और खुश हुए कि ’हद हो गई! कितना निरपेक्ष है, अष्टसिद्धि-नवनिधियां कुछ नहीं चाहिए। मैंने कहा कुछ मांगो, तो बोलता है कि सूई में जरा धागा डाल दो। गुरु का वचन रख लिया। कोई अपेक्षा नहीं? भर्तृहरि तुम धन्य हो गए! कहां उज्जयिनी का सम्राट नंगे पैर मरुभूमि में। एक महीना भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गए
Saturday, July 10, 2021
चन्द्रमा को श्राप
राजा दक्ष ने अपनी 27 पुत्रियों का विवाह चंद्रमा से किया । लेकिन चन्द्रमा उन 27 पत्नियो में से केवल रोहिणी नाम की पत्नी को ही अत्यधिक स्नेह करते थे। इस बात से बाकी की 26 पत्नियाँ अपनी उपेक्षा होते देख उन्होंने ने अपनी सारी व्यथा अपने पिता राजा दक्ष को बताई। राजा दक्ष ने पहले तो चन्द्रमा को समझाया पर दक्ष के बार-बार समझाने पर भी चंद्रमा ने अपना व्यवहार नहीं सुधारा तो दक्ष ने चँद्रमा को क्षयरोग होने का श्राप दे दिया।इस श्राप के कारण चन्द्रमा धीरे धीरे क्षीण होने लगा और मृत्यु की और अग्रसर होने लगा। पूरे संसार माँ संतुलन बिगड़ने लगा। । चन्द्रमा ने ब्रह्मा जी से इस श्राप से मुक्ति का उपाय पूछा तब इस श्राप के निवारण के लिए ब्रह्मा जी ने प्रभास क्षेत्र में तपस्या करने को कहा . चन्द्रमा के पास मृत्यु टालने का अब कोई विकल्प नहीं बचा था। चन्द्रमा ने महादेव की कठिन उपासना करि। कालांतर में उनकी तपस्या से प्रसन्न हो कर महादेव ने दर्शन दिए। चन्द्रमा ने महादेव से दक्ष के श्राप से मुक्ति मांगी । महादेव ने बताय की दक्ष का श्राप पूरी तरह निरस्त नहीं किया जा सकता परन्तु उसका प्रभाव काम अवश्य किया जा सकता है तब महादेव ने वर दिया कि चंद्रमा की कला 15 दिन बढेगी और 15 दिन क्षीण हुआ करेगी। उनकी दृढ़ भक्ति को देखकर महादेव साकार स्वरुप ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रभास क्षेत्र में स्थापित हुए। चंद्रमाँ का एक नाम सोम है अतः सोम से पूजित भगवान् शिव वहां सोमनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए। सोमनाथ ज्योतिर्लिंग ही सर्वप्रथम ज्योतिर्लिंग है। इस प्रकार भगवान् शिव ने चन्द्रमा के श्राप का निवारण किया जिसमे कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा का क्षय होता है और अमावस्या के दिन चँद्रमा अपनी कलाओ से विहीन हो जाता है और शुक्ल पक्ष में चँद्रमा की कालाय बढ़ती जाती है और पूर्णिमा के दिन वो अपनी पूरी कलाओ के साथ उदित होता है।
Sunday, June 13, 2021
गुरु की महिमा
एक सन्त के पास तीस सेवक रहते थे . एक सेवक ने गुरुजी के आगे अरदास की, "महाराज जी ! एक महीने बाद मेरी बहन की शादी है। मैं दस दिन के लिए वहाँ जाऊँगा। कृपा करें,आप भी साथ चलें।" गुरु जी ने कहा,"बेटा देखो ! समय बताएगा। तुम्हें तो हम जानें ही देंगे।" उस सेवक ने बीच-बीच में इशारा गुरु जी की ओर किया कि गुरुजी कुछ न कुछ मेरी मदद कर दें। आखिर वह दिन नज़दीक आ गया। सेवक ने कहा, "गुरु जी मैं कल सुबह जाऊँगा।" गुरु जी ने कहा, "ठीक है बेटा।" सुबह हो गई। जब सेवक जाने लगा तो गुरु जी ने उसे 5 किलो अनार दिए और कहा, "ले जा बेटा ! भगवान तेरी बहन की शादी खूब धूमधाम से करें। दुनिया याद करे कि ऐसी शादी तो हमने कभी देखी ही नहीं और साथ में दो सेवक भेज दिये। जाओ तुम शादी पूरी करके आ जाना" . सेवक आश्रम से निकले। अभी सौ किलोमीटर ही गए तो जिसकी बहन की शादी थी, वह सेवक से बोला, "गुरु जी को पता ही था कि मेरी बहन की शादी है और हमारे पास कुछ भी नहीं है, फिर भी गुरु जी ने मेरी मदद नहीं की।" दो-तीन दिन के बाद वह अपने घर पहुँच गया। वहाँ के राजा की लड़की बीमार हो गई। वैद्य ने बताया, "इस लड़की को अनार के साथ यह दवाई दी जाएगी तो यह लड़की ठीक हो जाएगी। राजा ने घोषणा करवा रखी थी कि अगर किसी के पास अनार है तो उसे बहुत ही इनाम देंगे। जब यह आवाज उन सेवकों के कानों में पड़ी तो वे सेवक राजा के पास चले गए राजा को और अनार दिए गए।
अनार का रस निकाला गया। लड़की को दवाई दी गई। लड़की ठीक हो गई। राजा जी ने पूछा, "तुम कहाँ से आए हो ?" तो उस सेवक ने सारी सच्चाई बता दी। राजा ने कहा, "ठीक है ! तुम्हारी बहन की शादी मैं करूँगा।" राजा ने हुकुम दिया, ऐसी शादी होनी चाहिए कि लोग यह कहें, "यह राजा की लड़की की शादी है।". सब बारातियों को सोने-चाँदी के गहने उपहार में दिए गए। बारात की सेवा बहुत अच्छी हुई। लड़की को बहुत सारा धन दिया गया। लड़की के माँ-बाप को बहुत ही जमीन-जायदाद, आलीशान मकान, बहुत ही धन दिया गया। लड़की भी राजी-खुशी विदा होकर चली गई। अब सेवक सोच रहे हैं कि गुरु की महिमा गुरु ही जानें . गुरु जी के वचन थे, "जा बेटा ! तेरी बहन की शादी ऐसी होगी कि दुनिया देखेगी।
Friday, June 11, 2021
राम से बड़ा राम का नाम
रामदरबार में हनुमानजी महाराज रामजी की सेवा में इतने तन्मय हो गये कि गुरू वशिष्ठ के आने का उनको ध्यान ही नहीं रहा। सबने उठ कर उनका अभिवादन किया पर, हनुमानजी नहिं कर पाये। वशिष्ठ जी ने रामजी से कहा कि राम गुरु का भरे दरबार में अभिवादन नहीं कर अपमान करने पर क्या सजा होनी चाहिए । राम ने कहा गुरुवर आप ही बतायें । वशिष्ठजी ने कहा मृत्यु दण्ड ।राम ने कहा स्वीकार हॆं। तब राम जी ने कहा कि गुरुदेव आप बतायें कि यह अपराध किसने किया हॆं? बता दूंगा पर राम वो तुम्हारा इतना प्रिय हॆं कि, तुम अपने आप को सजा दे दोगे पर उसको नहीं दे पाओगे राम ने कहा, गुरुदेव, राम के लिये सब समान हॆं। मॆने सीता जेसी पत्नी का सहर्ष त्याग धर्म के लिये कर दिया तो, भी आप संशय कर रहे हॆं?
नहीं, राम! मुझे तुम्हारे पर संशय नहीं हॆं पर, मुझे दण्ड के परिपूर्ण होने पर संशय हॆं।
अत:यदि तुम यह विश्वास दिलाते हो कि, तुम स्वयं उसे मृत्यु दण्ड अपने अमोघ बाण से दोगे तो ही में अपराधी का नाम और अपराध बताऊँगा । राम ने पुन: अपना ससंकल्प व्यक्त कर दिया। तब वशिष्ठ जी ने बताया कि, यह अपराध हनुमान जी ने किया हॆं। हनुमानजी ने स्वीकार कर लिया। तब दरबार में रामजी ने घोषणा की कि, कल सांयकाल सरयु के तट पर, हनुमानजी को मैँ स्वयं अपने अमोघ बाण से मृत्यु दण्ड दूंगा।
हनुमानजी के घर जाने पर उदासी की अवस्था में माता अंजनी ने देखा तो चकित रह गयी. कि मेरा लाल महावीर, अतुलित बल का स्वामी, ज्ञान का भण्डार, आज इस अवस्था में? माता ने बार बार पुछा,
तब हनुमानजी ने बताया कि, यह प्रकरण हुआ हॆं अनजाने में। माता! आप जानती हें कि, हनुमान को संपूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई नहीं मार सकता, पर भगवान राम के अमोघ बाण से भी कोई नहीं बच सकता l
तब माता ने कहा कि, हनुमान, मैंने भगवान शंकर से, "राम" मंत्र (नाम) प्राप्त किया था ,और तुम्हे भी जन्म के साथ ही यह नाम घुटी में पिलाया। जिसके प्रताप से तुमने बचपन में ही सूर्य को फल समझ मुख में ले लिया, उस राम नाम के होते हुये हनुमान कोई भी तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता । चाहे वो राम स्वयं भी हो l राम नाम की शक्ति के सामने राम की शक्ति और राम के अमोघ शक्तिबाण की शक्तियां महत्वहीन हो जायेगी। जाओ मेरे लाल, अभी से सरयु के तट पर जाकर राम नाम का उच्चारण करना आरंभ करदो। माता के चरण छूकर हनुमानजी, सरयु किनारे राम राम राम राम रटने लगे।
सांयकाल, राम अपने सम्पूर्ण दरबार सहित सरयुतट आये। सको कोतुहल था कि, क्या राम हनुमान को सजा देगें?
पर जब राम ने बार बार रामबाण ,अपने महान शक्तिधारी ,अमोघशक्ति बाण चलाये पर हनुमानजी के उपर उनका कोई असर नहीं हुआ तो, गुरु वशिष्ठ जी ने शंका बतायी कि, राम तुम अपनी पुर्ण निष्ठा से बाणो का प्रयोग कर रहे हो? तो राम ने कहा हां गुरूदेव मैँ गुरु के प्रति अपराध की सजा देने को अपने बाण चला रहा हूं, उसमें किसी भी प्रकार की चतुराई करके मैँ कॆसे वही अपराध कर सकता हूं?
तो तुम्हारे बाण अपना कार्य क्यों नहीं कर रहे हॆ?
तब राम ने कहा, गुरु देव हनुमान राम राम राम की अंखण्ड रट लगाये हुये हॆं। मेरी शक्तिंयो का अस्तित्व राम नाम के प्रताप के समक्ष महत्वहीन हो रहा है। इसमें मेरा कोई भी प्रयास सफल नहीं हो रहा है। आप ही बतायें , गुरु देव ! मैँ क्या करुं।
गुरु देव ने कहा, हे राम ! आज से मैँ तुम्हारा साथ तुम्हारा दरबार, त्याग कर अपने आश्रम जाकर राम नाम जप हेतु जा रहा हूं। जाते -जाते, गुरुदेव वशिष्ठ जी ने घोषणा की कि हे राम ! मैं जानकर ,मानकर. यह घौषणा कर रहा हूं कि स्वयं राम से राम का नाम बडा़ हॆं, महा अमोघशक्ति का सागर है। जो कोई जपेगा, लिखेगा, मनन.करेगा, उसकी लोक कामनापूर्ति होते हुये भी,वो मोक्ष का भागी होगा।
तभी से राम से बडा राम का नाम माना जाता है ।