कहते है जन्म का समय इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना जी मृत्यु का। मृत्यु उपरान्त भी एक जीवन है जो हमारा कर रहा है। हिन्दू मतानुसार 16 संस्कार है जन्म से मृत्यु तक। सोलहवे संस्कार जिसे की अंतिम संस्कार का नाम दिया गया है वो सब से महत्व पूर्ण है। मृत्यु से 9 महीने पूर्व शरीर में अंदरूनी क्रिया शुरू हो जाती है . तीन दिन पूर्व सिर्फ देवता या मनुष्य के पुण्य ही मृत्यु को टाल सकते हैं.मृत्यु से पूर्व आभामंडल के रंगो में परिवर्तन आना शूरू हो जाता है .दूसरा की जैसे जैसे मृत्यु नज़दीक आती जाती है हमारे शरीर के अंदर विद्यमान ७ चक्रो में से नाभि चक्र खंडित होना शुरू हो जाता है। मृत्यु से ठीक पहले मनुष्य के पुराने रोग बिलकुल ठीक हो जाते है जिन्होंने सालो साल शरीर को अपने नियंत्रण में लिया होता है। जिन लोगों की मृत्यु एक माह शेष रहती है वे अपनी छाया को भी स्वयं से अलग देखने लगते हैं। मृत्यु से पहले मानव शरीर से अजीब-सी गंध आने लगती है। इसे मृत्यु गंध कहा जाता है।इस दौरान व्यक्ति को दर्पण में अपना चेहरा न दिखकर किसी और का चेहरा होने का भ्रम होने लगता है। जब कोई व्यक्ति चंद्र, सूर्य या आग से उत्पन्न होने वाली रोशनी को भी नहीं देख पाता है तो ऐसा इंसान भी कुछ माह और जीवित रहेगा, ऐसी संभावनाएं रहती हैं।स्वर सिद्धांत से भी मृत्यु की निकटता को जाना जा सकता है। ऐसा माना जाता है की यदि मृत्यु बिलकुल नज़दीक हो तो रोगी को तुरंत बिस्तरे से बीचे लिटा दिया जाता है और नमक एक दान करवा दिया जाता है . आत्मा शरीर प्रवेश तो ब्रह्म रंध्र स्थान से करती है परन्तु उस की निकासी दस रंध्र में से किसी एक स्थान से होती है . प्राण त्यागने उपरान्त शव को दाह संस्कार के लिए जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए और यह भी ध्यान रखना होता है की दाह संस्कार सूर्यास्त के बाद न हो. हमेशा पार्थिव शरीर को ले जाते समय उसका सिर आगे और पैर पीछे रखे जाते हैं। अंत में जब देह को चिता पर लेटाया जाता है तो उसका सिर चिता पर दक्षिण दिशा की ओर रखते हैं। अंतिम संस्कार के बाद देह के अंगों में केवल हड्डियों के अवशेष ही बचते हैं। जो लगभग जल चुके होते हैं। इन्हीं को अस्थियां कहते हैं। मृत्यु के बाद भी व्यक्ति की सूक्ष्म आत्मा उसी स्थान पर रहती है जहां उस व्यक्ति की मृत्यु हुई। आत्मा पूरे तेरह दिन अपने घर में ही रहती है. . दाह संस्कार के तीसरे दिन अस्थियो को कलश में सम्भाला जाता है. आत्मा का स्थान ह्रदय क्षेत्र के निकट माना गया है। अस्थियां एकत्रित करते समय अक्सर एक विशेष आकृति की हड्डी भी मिलती है जिसे आत्माराम की संज्ञा दी गयी है। अनुसार आत्माराम शरीर की हड्डियों का एक विशेष हिस्सा है. इसका स्वरूप मानव शरीर की भांति ही होता है मानो कोई योगी चौकड़ी लगा कर बैठा हो। यदि व्यक्ति बहुत बीमार रहा लम्बे समय से या फिर काफी समय तक मदिरा का सेवन किया हो यह आत्मा राम या तो खंडित मिलता है या फिर नहीं मिलता. आत्माराम का मिलना या न मिलने पर आत्मा की शांति निर्भर नहीं करती. जिसघर में मृत्यु हुई है उसके रक्तसम्बन्धियों व उस स्थान पर रहने वाले लोगों पर सूतक लगता है। गरूर पुराण को वही करना चाहिए जहा आखरी बार मृत शरीर को जमीन में रखा गया था | मृत्यु उपरान्त भी आत्मा सूक्ष्म रूप से उन हड्डियों से जुडी ही रहती है. इसलिए अस्थियों को घर पर नहीं लाया जाता और दसवे दिन पवित्र नदी में ही प्रवाह करना होता है गाढ़ना नहीं होता. मृत्यु उपरांत अनिष्ट शक्तिया आत्मा को अपने नियंत्रण में कर सकती है. विसर्जन की यात्रा के दौरान कलश को अकेला नहीं छोड़ा जाता। अंततः कलश सहित अस्थियां आदर भाव के साथ आत्मा से प्रार्थना की जाती है उसके विश्राम के लिए